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जैन- न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
नमः सन्मतये तस्मै, भवकूपनिपातिनाम् । सन्मतिर्विवृता येन सुखधाम - प्रवेशिनी ।।
यह टीका उपलब्ध नहीं है । श्वेताम्बराचार्य मल्लवादी की भी एक टीका इस ग्रन्थ पर थी, जो उपलब्ध नहीं है । ग्यारहवीं शताब्दी के श्वेताम्बराचार्य अभयदेव की टीका उपलब्ध है।
सन्मति-सूत्र में नयवाद पर अच्छा प्रकाश डाला गया है तथा अन्त में लिखा है कि जितने वचन-मार्ग हैं उतने ही नयवाद हैं और जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय यानी जैनेतर दर्शन हैं। उन दर्शनों में कपिल का साँख्यदर्शन द्रव्यार्थिक नय का विषय है, बुद्ध का दर्शन शुद्ध पर्याय - नय का विषय है और कणाद का दर्शन दोनों नयों के द्वारा प्ररुपित होने पर भी मिथ्या है; क्योंकि उक्त दर्शन में दोनों दृष्टियाँ सापेक्ष नहीं
हैं।
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सन्मति - सूत्र के दूसरे काण्ड में ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के क्रमवादं तथा. युगपद्वाद में दोष दिखाकर अभेदवाद का स्थापन है । दिग़म्बर - परम्परा में केवली के दर्शन और ज्ञान युगपत् माने जाते है और श्वेताम्बर - परम्परा में क्रम से माने जाते हैं किन्तु सन्मतिकार का कहना है कि ज्ञान और दर्शन का भेद छद्यस्थ-अवस्था तक ही रहता है, केवलज्ञान हो जाने पर कोई भेद नहीं रहता । तब दर्शन कहो या ज्ञान कहो, एक ही बात है। इसी से सन्मति के कर्त्ता सिद्धसेन अभेदवाद के पुरस्कर्त्ता माने जाते हैं।
न्यायावतार में प्रमाण का विवेचन है। इसमें समन्तभद्रोक्त प्रमाण के लक्षण में ‘बाध-विवर्जित’ पद बढाया गया है और उसके प्रत्यक्ष और परोक्ष भेद करके दोनों की परिभाषा बतलाई है। उसके बाद अनुमान - प्रमाण की परिभाषा और उसके स्वार्थ और परार्थ भेदों का स्वरूप बतलाया है। परार्थानुमान के साथ ही साथ पक्ष, हेतु, दृष्टान्त, दूषण और तदाभासों का विवेचन भी इस ग्रन्थ में है । इस तरह न्यायोपयोगी तत्त्वों का समावेश इस ३२ कारिकाओं के प्रकरण में है । भाषा संस्कृत है।
यद्यपि इस ग्रन्थ में न तो ग्रंथ का नाम दिया गया है और न ग्रंथकार का । ‘न्याय' शब्द तक उसमें नहीं है किन्तु उसके टीकाकार सिद्धर्षि ने उसका नाम न्यायावतार ही बताया है तथा परम्परा से इसे सिद्धसेन की कृति माना जाता है । पं. सुखलालजी का यही मत है किन्तु इसके अवलोकन से यह धारणा दृढ़ होती है । कि ग्रंथ धर्मकीर्ति के बाद में रचा गया होना चाहिये