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प्राचीन जैनाचार्य और उनका दार्शनिक साहित्य
मानता है। १७. दूसरे जो दुख देने से पाप ही होता है और सुख देने से पुण्य ही होता . है यह एकान्त-बाद। १८. स्वयं दुख उठाने से पुण्य ही होता है और सुखोपभोग करने से पाप ही होता है यह एंकातवाद। १६. अज्ञान से बन्ध ही होता है यह एकान्तवाद। २०. स्तोक ज्ञान से मोक्ष होता है यह एकान्तवाद।
___ इस तरह इन एकान्तवादों की समीक्षा करके आचार्य समन्तभद्र ने तत्त्व को भावाभावात्मक, द्वैताद्वैतात्मक, नित्यानित्यात्मक, भेदाभेदात्मक आदि स्वीकार किया है। स्याद्वाद या अनेकान्तवाद का दार्शनिक क्षेत्र में सफल प्रयोग करने का श्रेय आचार्य समन्तभद्र को ही है। इसी से विद्वान् लोग उन्हें स्याद्वाद-तीर्थंकर और स्याद्वाद का पिता तक कहते हैं। इनका समय विक्रम की चौथी-पाँचवीं शताब्दी है। आचार्य सिद्धसेनः
जैन वाङ्मय में आचार्य सिद्धसेन का स्थान बहुत ऊँचा है। श्वेताम्बर-परम्मरा में सिद्धसेन दिवाकर के नाम से इनकी ख्याति है किन्तु दिगम्बर-परम्परा में यह सिद्धसेन के नाम से ही ख्यात हैं। दिगम्बर-परम्परा में जिस प्रकार की घटना का उल्लेख स्वामी समन्तभद्र के जीवन के सम्बन्ध में पाया जाता है, श्वेताम्बर-परम्परा में उसी प्रकार की घटना का उल्लेख सिद्धसेन दिवाकर के सम्बन्ध में मिलता है अर्थात् विक्रमादित्य राजा की ओर से शिवलिंग को नमस्कार करने का अनुरोध करने पर जब सिद्धसेन ने कहा कि यह देवता मेरा नमस्कार नहीं सह सकता तब राजा ने उनसे
आग्रह किया । इस पर सिद्धसेन ने इष्टदेव की स्तुति की। ... सिद्धसेन प्राचीन तर्क ग्रन्थकार थे। द्वात्रिंशद्-द्वात्रिंशिका, सन्मति-तर्क, न्यायावतार
और कल्याणमन्दिर-स्तोत्र को इसकी कृति माना जाता है। पं० सुखलालजी का मन्तव्य है कि सिद्धसेन श्वेताम्बर थे। किन्तु पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार ने 'सन्मति-सूत्र और सिद्धसेन" शीर्षक वाले अपने गवेषणा-पूर्ण निबन्ध में यह सिद्ध किया है कि सिद्धसेन नाम के कई आचार्य हुए हैं और उक्त ग्रन्थ एक ही सिद्धसेन की कृतियाँ नहीं हैं तथा सन्मति सूत्र के कर्ता प्रसिद्ध सिद्धसेन दिगम्बर थे। दिगम्बर आचार्यों ने उनके सन्मति-सूत्र नाम के ग्रन्थ का उल्लेख भक्ति-भाव से किया है। इतना ही नहीं किन्तु सुमति नाम के दिगम्बर विद्वान् ने, जिनका उल्लेख तत्त्वसंग्रह की टीका में बौद्ध विद्वान् कमलशील ने भी किया है, सन्मति-सूत्र पर एक टीका भी रची थी, जिसका उल्लेख वादिराजसूरि ने अपने पार्श्वनाथ-चरित के प्रारम्भ में किया है। यथा- .
१ अनेकान्त वर्ष- अंक १४