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________________ जैन - न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान तो खुल गई। तब राजा ने इनसे 'शिवलिंग' को नमस्कार करने का आग्रह किया। उस समय इन्होंने 'वृहत्स्वयंभू स्तोत्र' नामक एक दार्शनिक स्तोत्र की रचना करके. अपना चमत्कार दिखाया और कहा -- राजन् ! मै जैन निर्ग्रन्थवादी हूँ, जिसकी शक्ति मुझसे वाद करने की हो वह सम्मुख आवे । इसी से ये आद्य स्तुतिकार भी कहे जाते हैं। उक्त स्तोत्र के सिवा इनके युक्त्यनुशासन, आप्तमीमांसा, जिनस्तुति - शतक, रत्नकरण्डश्रावकाचार ग्रंथ उपलब्ध है । जीवसिद्धि आदि कुछ अन्य ग्रंथों का भी उल्लेख मिलता है किन्तु वे उपलब्ध नहीं हो सके हैं। युक्त्यनुशासन ग्रंथ बड़ा ही महत्त्वपूर्ण हैं। इसमें स्तोत्र- प्रणाली से ६४ पद्यों के द्वारा स्वमत और पर-मत के गुण-दोषों का मार्मिक विवेचन किया गया है और प्रत्येक विषय का निरूपण प्रबल युक्तियों के द्वारा किया है। वृहत्स्वयंभू स्तोत्र में चौबीस तीर्थकरों की स्तुति है । स्तुतियों के द्वारा चौबीस तीर्थंकरों के धर्म का प्रतिपादन करना ही इसका मुख्य विषय है । संपूर्ण ग्रंथ दार्शनिक चर्चाओं और धार्मिक शिक्षाओं से परिपूर्ण है । आप्तमीमांसा समन्तभद्र के ग्रंथों में सब से प्रधान ग्रंथ है। इसमें आप्त के स्वरूप की मिमांसा करते हुए उसे सर्वा और निर्दोष बतलाया है तथा उनके वचनों को युक्ति और आगम से अविरुद्ध प्रमाणित करने के लिए एकान्तवादी मतों को स्याद्वादरूपी कसौटी पर कसकर सर्वत्र अनेकांतवाद की प्रतिष्ठा की है। जिन एकान्तवादों की समीक्षा इस ग्रंथ में की गई है उनकी तालिका इस प्रकार है: १. भावैकान्तवाद - जो केवल भावात्मक पदार्थों को ही स्वीकार करता है । २. अभावैकान्तवाद - जो केवल अभाव को ही स्वीकार करता है । ३. अद्वैतैकान्तवाद - जो केवल अद्वैत को ही स्वीकार करता है । ४. द्वैतैकान्तवाद - जो केवल द्वैत को ही स्वीकार करता है। ५. नित्यत्यैकान्तवाद - जो वस्तु को सर्वथा नित्य ही मानता है । ६. अनित्यत्वैकान्तवाद - जो वस्तु को सर्वथा क्षणिक ही मानता है । ७. भैदैकान्तवाद - जो कार्य-कारण को, गुण-गुणी वगैरह को भिन्न ही मानता है । ८. अभेदैकान्तवाद - जो इनको सर्वथा अभिन्न ही मानता है । ६. अपेक्षैकांतवाद - जो पदार्थों की सिद्धि अपेक्षा से ही मानता है । १०. अनपेक्षैकांतवाद - जो पदार्थों की सिद्धि बिना अपेक्षा के ही मानता है। ११. युक्त्यैकांतवाद - जो केवल युक्ति से वस्तु की सिद्धि मानता है। १२. आगमैकांतवाद- जो केवल शास्त्राचार से ही वस्तु की सिद्धि मानता है । १३. अन्तरंगार्थतैकांतवाद- जो केवल अन्तरंग पदार्थों को ही मानता है । १४. बहिरंगार्थतैकांतवादजो केवल बाह्य पदार्थों को ही मानता है । १५. दैवैकांतवाद - जो केवल दैव को ही कार्य का साधक मानता है। १६. पौरुषैकांतवाद - जो केवल पौरुष को ही कार्य का साधक 8
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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