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________________ जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं के जैन तार्किकों ने सूत्रकार के द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का ही अनुसरण किया है। तत्त्वार्थ सूत्र के दूसरे अध्याय में जीव तत्त्व का वर्णन है। उसमें प्रथम जीव के भावों का वर्णन करके उसका लक्षण बतलाया है। फिर जीव के संसारी और मुक्त--दो भेद करके संसारी जीवों का वर्णन किया है। उसमें बतलाया है कि मरने के बाद कैसे जीव एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाता है। वहाँ जाकर कैसे जन्म लेता है? कैसे उसके शरीर का निर्माण होता है ? तथा किन जीवों की अकाल मृत्यु होती है? ... तीसरे अध्याय में अधोलोक की रचना बतलाते हुए सात नरकों का वर्णन किया है। उसके बाद मध्यलोक का वर्णन है। चौथे अध्याय में ऊर्ध्वलोक का वर्णन करते हुए . स्वर्गों में रहने वाले देवों का वर्णन किया है। पाँचवें अध्याय में अजीव तत्त्व का वर्णन है जो प्रवचनसार के ज्ञेयाधिकार की चर्चा से मिलता हुआ है। इसमें भी उस तरह उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य को तथा गुण और पर्यायों का द्रव्य को लक्षण बतलाया है तथा द्रव्य के छह भेद--जीव, पुद्गल, धर्म; अधर्म, आकाश और काल--किए हैं। पुद्गल के दो भेद किए हैं-- अणु और स्कन्ध । अणु की उत्पति बतलाते हुए एक परमाणु से दूसरे परमाणु का बन्ध कैसे होता है, इसका निरूपण भी प्रवचनसार के अनुसार ही किया है। छठे अध्याय में आसव तत्त्व का वर्णन करते हुए बतलाया है कि किन-किन कामों के करने से किन-किन का आस्रव (आगमन) होता है। सातवें अध्याय में पुण्यासव के कारणों का निर्देश करते हुए अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-- इन पाँच व्रतों का वर्णन किया है। यह अध्याय श्रावक के आचार से सम्बद्ध है। आठवें में बन्ध तत्त्व का वर्णन करते हुए जैन कर्म-सिद्धांत का वर्णन किया गया है। उसमें कर्मबन्ध के कारण बतलाकर बन्ध का स्वरूप और भेद बतलाए है। नवें अध्याय से संवर और निर्जरा तत्त्व का वर्णन है। एक तरह से यह अध्याय मुनि-धर्म से सम्बद्ध है। इसमें गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषह-जय और चारित्र का तथा ध्यान का विशद वर्णन है। दसवें अध्याय में मोक्ष का स्वरूप बतलाकर मुक्त-जीव का वर्णन किया है। इस तरह इस सूत्र ग्रन्थ में समस्त जैन पदार्थों को दार्शनिक शैली में Dथा गया है। सभी जैन सम्प्रदाय इसको मानते हैं और इसका आदर करते है। मीमांसा-दर्शन में जैमिनि के सूत्रों का, वेदान्तदर्शन में ब्रह्मसूत्र का, योगदर्शन में योगसूत्र का, न्यायदर्शन में न्यायसूत्र का और वैशेषिक दर्शन में वैशेषिकसूत्र का जो स्थान है, वही स्थान जैनदर्शन में तत्त्वार्थसूत्र का है।
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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