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प्राचीन जैनाचार्य और उनका दार्शनिक साहित्य
अमृतचन्द्रसूरि ने इसको नाटक का ही रूप दिया है। अतः उन्होंने इसके प्रारम्भिक • भाग का नाम पूर्वरंग रक्खा है तथा जब एक तत्त्व का निरूपण समाप्त होता है तो वह नाटक पद्धति में लिखते हैं-- 'आस्रवो निष्क्रान्तः ।' आस्रव चला गया और जब दूसरा प्रकरण प्रारम्भ होता है तो वे लिखते हैं-- 'अथ प्रविशति संवरः । अब संवर प्रवेश करता है।
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आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने इन ग्रन्थरत्नों में जो ज्ञान और ज्ञेय की चर्चा की, आगे चलकर वही जैनदर्शन की आधारशिला बनी। सूत्रकार उमास्वामीः
आचार्य कुन्दकुन्द के बाद में एक आचार्य हुए जिन्होंने वैदिकदर्शनों के सूत्र-ग्रंथों की तरह की जैनदर्शन को संस्कृत भाषा के सूत्रों में संगृहीत करने का सफल प्रयत्न किया। उस सूत्र-ग्रंथ को ‘तत्त्वार्थ सूत्र' कहते हैं । इस ग्रंथ का प्रधान प्रतिपाद्य विषय 'मोक्ष' है, इसी से इसको 'मोक्ष - शास्त्र' भी कहते हैं । इसका आरम्भ होता है मोक्ष-मार्ग से। आचार्य कुन्दकुन्द की तरह ही सूत्रकार ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को मोक्ष-मार्ग बतलाया है और सात तत्त्वों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन बतलाया है। उन्हीं सात तत्त्वों का निरूपण इस ग्रंथ में है। आचार्य कुन्दकुन्द ने नौ पदार्थों का निरूपण किया है किंतु सूत्रकार ने पुण्य और पाप तत्त्व को आस्रव और बन्ध तत्त्व में गर्भित करके तत्त्वों की संख्या सात ही रखी है।
इस ग्रंथ में दस अध्याय हैं। प्रथम अध्याय में सात तत्त्वों को जानने के उपाय बतलाते हुए ज्ञान के दो भेद किए हैं । सूत्रकार ने ज्ञान को ही प्रमाण बतलाकर प्रमाण के दो भेद किए हैं-- परोक्ष और प्रत्यक्ष ।
जैन साहित्य में ज्ञान - निरूपण की दो पद्धतियाँ पाई जाती हैं-- पहली सैद्धान्तिक, दूसरी दार्शनिक । सैद्धान्तिक पद्धति में ज्ञान के मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल-- इस तरह पाँच भेद करके समग्र ज्ञानों का निरूपण किया गया है और दार्शनिक पद्धति में उक्त पाँच ज्ञानों में परोक्ष और प्रत्यक्ष का विभाग करके समग्र ज्ञानों का निरूपण किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने प्रवचनसार में परोक्ष और प्रत्यक्ष ज्ञान का स्वरूप मात्र बतलाया है, उनके भेद - प्रभेद नहीं किए किन्तु सूत्रकार ने पाँचों ज्ञानों को प्रमाण बतलाकर तथा प्रमाण के परोक्ष और प्रत्यक्ष भेद में उनका विभाग करके दोनों परम्पराओं का समन्वय ही नहीं किया, बल्कि दार्शनिक जगत् के स्मृति आदि प्रमाणों का अन्तर्भाव भी परोक्ष प्रमाण में करके अपने पश्चात् होने वाले जैन तार्किकों का मार्ग-दर्शन भी कर दिया। इस दिशा में उक्त सूत्रकार के बाद होने वाले