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जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
ही मस्त हैं उसे ही जीवन का सार समझते हैं। अतः इस ग्रन्थ में ग्रन्थकार ने उस शुद्ध । आत्मतत्त्व का दर्शन कराने का ही भरसक प्रयत्न किया है।
जैनदर्शन में वस्तुतत्त्व का विवेचन दो दृष्टियों से किया जाता है-- एक निश्चयनय से और एक व्यवहारनय से। निश्चयनय वस्तु के पर-निरपेक्ष असली स्वरूप को ग्रहण करता है और व्यवहारनय पर-सापेक्ष को। जैसे मिट्टी के घड़े में घी भरा होने से उसे घी का घड़ा कहना व्यवहार है और मिट्टी का घड़ा कहना यथार्थ है। जो यथार्थग्राही है, वही निश्चय है अतः निश्चयनय की दृष्टि से वस्तु-तत्त्व अभेद रूप है किन्तु अभेद रूप तत्त्व का प्रतिपादन करना शक्य नहीं है। प्रतिपादन करने से वह तत्त्व अभेद रूप न रहकर भेद रूप प्रतीत होता है, जो यथार्थ नहीं है किन्तु बिना प्रतिपादन किए दूसरे को समझाया नहीं जा सकता। जैसे, 'आत्मा' कहने मात्र से दूसरा . नहीं समझ सकता कि आत्मा क्या वस्तु है? किन्तु यदि कहा जाए कि जो जानता, देखता है वह आत्मा है तो दूसरा झट समझ जाता है। अतः निश्चय अभेदग्राही है और . व्यवहार भेदग्राही है। इसी से निश्चय यथार्थ है और व्यवहार अयथार्थ किन्तु बिना व्यवहारनय की सहायता के परमार्थ का उपदेश नहीं हो सकता, इसलिए व्यवहार को छोड़ा भी नहीं जा सकता।
इन्हीं दो दृष्टियों को सामने रखकर ग्रन्थकार ने आत्मतत्त्व का विवेचन किया है। वे कहते हैं-- जो आत्मा को जल में कमल की तरह कर्म-नोकर्म से असंस्पृष्ट जानता है, नर-नारक आदि पर्यायों में भी उसे एक रूप देखता है तथा रागादि विकल्पों से असंयुक्त और ज्ञानदर्शन आदि के भेद से रहित अनुभव करता है वह शुद्धनय है (गाथा १५) और जो इसके विपरीत जानता है वह व्यवहार-नय है। व्यवहार-नय कहता है कि जीव और शरीर एक हैं किन्तु निश्चयनय की दृष्टि से ये दोनों कभी एक नहीं हो सकते। ग्रन्थकार का कहना है कि जीव-अजीव आदि नौ पदार्थों को निश्चय नय से जानने पर ही सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है अतः उन्होंने निश्चय और व्यवहार-दृष्टि से नौ पदार्थों तत्त्वों का निरूपण करके शुद्ध आत्मतत्त्व की प्रतिष्ठा इस ग्रंथ में की है। उनका कहना है कि एक जीव-तत्त्व ही नौ पदार्थ रूप हो रहा है किन्तु वह अपने एकत्व को फिर भी नहीं छोड़ता। ____ हम ऊपर लिख आए हैं कि पंचास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसार को नाटकत्रयी कहते है। किन्तु वास्तव में तो समयसार को ही नाटक कहना उचित है; क्योंकि उसमें संसार का नाटक दिखाया गया है, जिसमें जीव और अजीव नाम के दो नट आस्रव आदि तत्त्वों का अभिनय करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। इसके टीकाकार