SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राचीन जैनाचार्य और उनका दार्शनिक साहित्य आगे द्रव्य के भेद-- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल का वर्णन करते हुए जीव और कर्म के सम्बन्ध का तथा जीव के कर्तृत्व का विचार किया है। लिखा है- न तो यह आत्मा पुद्गल है और न इस आत्मा ने पुद्गलों को पिण्ड रूप किया है अतः न तो आत्मा देह रूप है और न देह का कर्ता है किन्तु स्निग्ध-गुण और रूक्ष-गुण के निमित्त से परमाणु स्वयं ही पिण्ड रूप हो जाते हैं। अतः आत्मा पुद्गल-पिण्ड रूप कर्म का कर्ता नहीं है। आत्मा तो अपने राग-द्वेष रूप भावों को करता है। उन भावों को निमित्त पाकर पुद्गल-कर्म-वर्गणाएँ कर्म रूप होकर आत्मा से बद्ध हो जाती है। इसी का नाम बन्ध है। इस तरह बन्ध का निरूपण करके उसके छूटने का उपाय भी उसी के साथ बतला दिया है। लिखा है-- जो शुद्ध आत्म-स्वरूप को जानकर उसी का ध्यान करता है वह मोह की ग्रन्थि को नष्ट कर देता है। मोह की ग्रन्थि के नष्ट हो जाने पर राग-द्वेष को छोड़कर जब आत्मा सुख-दुख में समबुद्धि हो जाता है तो अक्षय-सुख को प्राप्त कर लेता है। अक्षय-सुख की प्राप्ति ही ज्ञान और ज्ञेय की चर्चा का निचोड़ है। यही प्राप्तव्य है। उसी की प्राप्ति के लिए मनुष्य श्रमण होने की इच्छा करता है और श्रमण होकर उसकी साधना करता है। श्रमण की इस साधना का वर्णन तीसरे चारित्राधिकार में है। . . . दूसरे पंचास्तिकाय नामक ग्रन्थ में भी तीन ही अधिकार हैं। प्रथम अधिकार में पाँच अस्तिकायों का वर्णन है। इसका विषय यद्यपि प्रवचनसार के ज्ञेयाधिकार से मिलता हुआ है किन्तु कई दृष्टियों से उससे विशिष्ट है। दूसरे अधिकार में जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आसव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष-- इन नव पदार्थों का वर्णन है और तीसरे में मोक्ष-मार्ग का कथन है। ..तीसरा समयसार नामक ग्रंथ तो अध्यात्म का एक महानद ही है। 'समय' नाम आत्मा का है। आत्मा का सार यानि शुद्धावस्था का वर्णन इस ग्रंथ में है। इसको प्रारम्भ करते हुए ग्रन्थकार ने समय के दो भेद किए हैं-स्व-समय और पर-समय। जो आत्मा अपने ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप स्वभाव में स्थित है वह स्व-समय है और जो आत्मा कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाले पर-भाव में स्थित है वह पर-समय है। इन दोनों में से अपने शुद्ध गुण-पर्याय-रूप परिणत आत्मा ही उपादेय है। उस आत्मा के कर्म-बंधन से बद्ध होने की कथा विसंपाद पैदा करती है अतः वह सत्य नहीं है। सत्य तो एक शुद्ध आत्म-तत्त्व ही है। किन्तु उससे सब लोग अपरिचित हैं, उन्होंने न तो कभी उसको सुना ही है और न उसका अनुभव ही किया है वे तो बस, काम-भोग में
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy