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जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
आत्मा ज्ञान रूप भी है और अन्य गुण रूप भी है क्योंकि आत्मा अनन्त-गुणों का भण्डार है। अब चूंकि आत्मा और ज्ञान एक हैं, अतः आत्मा ज्ञानप्रमाण है। जितना बड़ा ज्ञान होता है उतना बड़ा आत्मा होता है और ज्ञान ज्ञेयप्रमाण होता है तथा ज्ञेय समस्त लोकालोक है अतः ज्ञान सर्वगत है और ज्ञान की अपेक्षा आत्मा भी सर्वगत है। यदि आत्मा को ज्ञान-प्रमाण नहीं माना जाता तो, या तो आत्मा ज्ञान से छोटा हुआ अथवा ज्ञान से बडा हुआ। यदि वह ज्ञान से छोटा है तो आत्मा से बाहर का ज्ञान अचेतन हो जाएगा, तब वह कैसे जानेगा? और यदि वह ज्ञान से बड़ा है तो बिना ज्ञान के वह कैसे किसी को जान सकेगा? इस तरह ज्ञान को आत्म-प्रमाण और आत्मा को ज्ञान-प्रमाण सिद्ध करके आचार्य कुन्दकुन्द' ने उसे सर्वज्ञ सिद्ध किया है। उनका कहना है कि जो सबको नहीं जानता है वह एक को भी नहीं जानता और जो एक को नहीं जानता वह सबको नहीं जानता।
इस तरह ज्ञान की बहुत ही सुन्दर चर्चा करके आचार्य कुन्दकुन्द ने ज्ञान के दो. भेद किए है- प्रत्यक्ष और परोक्ष । जो पर की सहायता से पदार्थों का ज्ञान होता है वह परोक्ष है और जो केवल जीव के द्वारा ही पदार्थ-ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष है। प्रत्यक्ष-ज्ञान अवग्रह-ईहा आदि क्रमिक ज्ञानों से रहित होता है। .
ज्ञानाधिकार की तरह दूसरा ज्ञेयाधिकार भी महत्त्वपूर्ण चर्चाओं से ओतप्रोत है। इसमें सत्ता, द्रव्य, गुण और पर्याय की बहुत ही मनोहर चर्चा है। जो उत्पाद, व्यय
और ध्रौव्य से सहित हो तथा गुण और पर्याय वाला हो वह द्रव्यं है। द्रव्य स्वभाव-सिद्ध है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप परिणाम के होते हुए भी वह स्वभाव से सत् और अवस्थित है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का परस्पर में अविनाभाव है। बिना उत्पाद के विनाश नहीं, बिना विनाश के उत्पाद नहीं और बिना ध्रौव्य के उत्पाद-विनाश नहीं। किन्तु उत्पाद, विनाश और ध्रौव्य पर्यायों में रहते है और पर्याय द्रव्य में होती है अतः सब द्रव्य रूप ही हैं। इसी तरह स्वयं द्रव्य ही एक गुण से अन्य गुण रूप परिणमन करता है अतः गुण और पर्याय भी द्रव्य रूप ही हैं तथा द्रव्य सत्स्वरूप है। द्रव्य सत् है, गुण सत् है, पर्याय सत् है यह सब सत्ता का ही विस्तार है।
इस तरह आचार्य कुन्दकुन्द ने सत्ता, द्रव्य, गुण और पर्याय में भेदाभेद का विवेचन सयुक्तिक और सुन्दर शैली में करके जैनदर्शन की अनुपम देन सप्तभंगी के अस्ति, नास्ति, अवक्तव्य और उभय-- इन चार भंगों का उल्लेख मात्र.किया है। इसके १. इनके विशेष परिचय के लिए ‘जीवराज ग्रंथमाला' शोलापुर से प्रकाशित ‘कुन्दकुन्द प्राभृत संग्रह' की प्रस्तावना
पढ़ना चाहिए।