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प्राचीन जैनाचार्य और उनका दार्शनिक साहित्य
सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री*
आचार्य कुन्दकुन्दः
जैन दार्शनिक साहित्य का क्रमबद्ध इतिहास ईसा की प्रथम शताब्दी से प्रारम्भ होता है। इस शताब्दी में कुन्दकुन्दाचार्य नाम के महान् प्रभावक आचार्य हुए। इनका समय विक्रम की तीसरी शताब्दी का है। इनका नाम पद्मनन्दि था । किन्तु अपने जन्म-स्थान कुन्दकुन्दपुर के नाम पर ये आचार्य कुन्दकुन्द के नाम से ही ख्यात हैं। ये मूलसंघ के अग्रणी थे जो दिगम्बर - आम्नाय का ही एक उपनाम है । उनके ग्रन्थ दिगम्बर आम्नाय में आगम-ग्रंथों के समान ही प्रमाण माने जाते हैं । प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, समयसार, नियमसार, अष्टपाहुड़ आदि अनेक ग्रंथ उनके बनाए हुए हैं । इनके शुरू के तीन ग्रन्थ बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं । जैसे वेदान्तदर्शन में उपनिषद, भगवद्-गीता और ब्रह्मसूत्र को प्रस्थानत्रयी कहते हैं, वैसे ही जैनदर्शन में प्रवचनसार, पंचास्तिकाय और समयसार नाटक - त्रयी के नाम से ख्यात हैं ।
प्रवचनसार में तीन अधिकार हैं -- ज्ञानाधिकार, ज्ञेयाधिकार और चारित्राधिकार । ज्ञानाधिकार में सबसे प्रथम तो यह बतलाया है कि शुद्धात्मा के इन्द्रियों के बिना भी ज्ञान और सुख होता है। ज्ञान और सुख दोनों आत्मा के स्वभाव हैं । सुख का कारण न तो शरीर ही है और न इन्द्रियों के विषय ही । इन्द्रिय-सुख यथार्थ में सुख नहीं है . किन्तु दुःख ही है । सुख ज्ञान से अभिन्न है । इन्द्रिय-सुख का कारण इन्द्रिय-ज्ञान है . और अतीन्द्रिय-सुख का कारण अतीन्द्रिय-ज्ञान है । इन्द्रिय-ज्ञान हेय है और अंतीन्द्रिय-ज्ञान उपादेय है। इन्द्रिय-ज्ञान अक्ष- निपतित अर्थ को ही जानता है अतः वह अतीत-अनागत को नहीं जान सकता । किन्तु अतीन्द्रिय-ज्ञान में सब को जानने की सामर्थ्य है। अतीन्द्रिय-ज्ञान क्षायिक है, नित्य है और व्यापक है । अतः वह त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती नाना प्रकार के सब पदार्थों को युगपत् जानता है।
आत्मा और ज्ञान के भेदाभेद की चर्चा करते हुए लिखा है कि ज्ञान आत्मा है क्योंकि आत्मा के बिना ज्ञान नहीं पाया जाता । अतः ज्ञान आत्म-स्वरूप है, किन्तु
पूर्व प्राचार्य, श्री स्याद्वाद महाविद्यालय, भदैनी, वाराणसी
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