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________________ जैन- न्याय को आचार्य अकंलंकदेव का अवदान 'हमें जैनन्याय साहित्य को आधुनिक विधा में सम्पादित कर जन-जन तक पहुँचाना चाहिए। अन्त में जिनवाणी स्तवन एवं महावीर भगवान की जयघोष के साथ सत्र समाप्त हुआ । चतुर्थ • दिनांक २८-१०-६६ को दोपहर २ बजे दि० जैन धर्मशाला शाहपुर में पू० मुनिद्वय के मंगल सान्निध्य में श्री पं० शिवचरणलाल मैनपुरी के मंगलाचरण से चतुर्थ सत्र प्रारम्भ हुआ। सत्र की अध्यक्षता प्रो० डा० नन्दलाल जैन ( रीवा) ने की एवं संयोजन डॉ० सुरेशचन्द (वाराणसी) ने किया । xxvi चतुर्थ सत्र के पत्रवाचक विद्वान एवं उनके विषय१. डॉ० प्रकाशचन्द्र जैन, प्राचार्य दिल्ली “ आचार्य अकलंकदेव का उत्तरवर्ती आचार्यों पर प्रभाव” २. डॉ० श्रेयांस कुमार जैन, बडौत ( उ० प्र० ) “आचार्य भट्टाकलंकदेव की प्रत्यक्ष प्रमाण विषयक अवधारणा ३. डॉ० फूलचन्द्र प्रेमी, वाराणसी ( उ० प्र०) “ आ० पूज्यपाद कृत सर्वार्थसिद्धि एवं आ० अकलंकदेव कृत तत्त्वार्थवार्तिक का तुलनात्मक अध्ययन” “ शिलालेखों के आलोक में आ० अकलंकदेव” ४. डॉ० कपूरचन्द खतौली ( उ० प्र० ) इस सत्र में पठित आलेखों पर विद्वानों के मध्य चर्चा-परिचर्चा हुई। अध्यक्षीय वक्तव्य में डॉ० नन्दलाल जैन ने आलेखों की समीक्षा की तथा कहा कि ऐसे सारस्वत अनुष्ठानों से समाज में सम्यग्ज्ञान के प्रचार-प्रसार का प्रशस्त वातावरण बनता है । अन्त में पू० उपाध्याय ज्ञानसागर महाराज ने कहा कि वस्तु स्वरूप के निर्धारण में प्रमाण और नयों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। यह सूक्ति प्रसिद्ध प्रमाणमकलंकस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् । धनज्जयकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् ।। आचार्य अकलंक वे प्रमाण की जो परिभाषाएँ स्थिर की । दोनों ही परम्पराओं ने इनको प्रमाणभत मानकर दार्शनिक सिद्धान्तों का विकास किया। हमें ऐसे महान आचार्य के प्रति कृतज्ञता का अर्ध्य समर्पित कर उनके साहित्य के अध्ययन का नियम लेना चाहिए।
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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