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जैन- न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
दध्यादौ न प्रवर्तेत बौद्धः तद्भुक्तये जनः । अदृश्यां सौगतीं तत्र तनूं सशङ्कमानसः॥ दध्यादिके तथा भुंक्ते न भुक्तं काञ्जिकादिकम् । इत्यसौ वेत्तुं नो वेत्ति न भुक्ता सौगती तनुः ॥
अर्थात् अदृश्य की शंका से बुद्ध का अनुयायी व्यक्ति निःशंक प्रवृत्ति नहीं कर सकेगा क्योंकि वहाँ बुद्ध के अदृश्य देह की आशंका बनी रहेगी । दही खाने पर कांजी नहीं खाई - यह तो वह समझ सकता है किन्तु बुद्ध का शरीर नहीं खाया यह समझना उन्हें संभव नहीं हैं।
इसी प्रकार अन्य अनेक स्थलों पर उन्होंने बड़े ही मार्मिक व्यंग्यों का प्रयोग किया है।