SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान xxi सांख्य, न्याय-वैशेषिक, मीमांसा, बौद्ध तथा चार्वाक दार्शनिकों की तार्किक संमीक्षा की है। उनकी तर्कविदग्धता अद्वितीय है। उनक तर्क अपने कथ्य को सिद्ध करने में पूर्णतया समर्थ हैं। इस सम्बंध में उनका एकाध तर्क द्रष्टव्य है। जब यह आशंका की गई कि मोक्ष प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर तो है नहीं, तब उसका मार्ग बताना निष्प्रयोजन है तो इसका समाधान करते हुए भट्ट अकलंकदेव कहते हैं कि अनुमान से उसकी सिद्धि हो जाती है। जैसे घटीयन्त्र (रेंहट) का घूमना धुरी से, धुरी का घूमना जुते हुए बैलों के घूमने से होता है और बैलों के रुक जाने से सबका घूमना रुक जाता है। उसी प्रकार कर्मोदय से गतिचक्र चलता है और गतिचक्र से वेदना रूपी घटीयन्त्र घूमता है। कर्मोदय की निवृत्ति होने पर चतुर्गति का चक्र रुक जाता है। अतः मोक्ष दृष्टिगोचर न होने पर भी अनुमान से सिद्ध है। . ६. अष्टशती ___ यह आचार्य समन्तभद्र द्वारा लिखित आप्तमीमांसा नामक ग्रन्थ पर लिखी गई वृत्ति है। इसका प्रमाण 800 श्लोक है, अतः इसे अष्टशती संज्ञा से अभिहित किया गया है। इसे आप्तमीमांसा-भाष्य या देवागम विवृति भी कहा जाता है। क्योंकि आप्तमीमांसा का अपर नाम देवागम भी है। अष्टशती एक क्लिष्ट एवं दुरूह वृत्ति है। इसे समझना विद्यानन्दिकृत अष्टसहस्री (आप्तमीमांसा की व्याख्या) के बिना असंभव सा प्रतीत होता है। अकलंकदेव ने अष्टशती में बौद्धों की कदम-कदम पर समालोचना की है किन्तु इस समालोचना में कहीं भी दुराग्नह की गन्ध नहीं है। अष्टशती में प्रमुख रूप से द्वैतवाद-अद्वैतवाद, शाश्वतवाद- अशाश्वतवाद, वक्तव्यवाद - अवक्तव्यवाद, सापेक्षवाद-निरपेक्षवाद, हेतुवाद- अहेतुवाद, दैववाद - पुरुषार्थवाद, पुण्यवाद-पापवाद आदि विविध दार्शनिक मतों की समीक्षा दृष्टिगत होती है। अष्टशती की शैली यद्यपि दुरूह है तथापि उसमें अर्थ की गंभीरता है। हाँ, कहीं-कहीं तो व्यंग्य के चुटीलेपन से दर्शन जैसा नीरस साहित्य भी सरस प्रतीत होने लगता है। अदृश्यानुपलब्धि से अभाव की सिद्धि न मानने पर वे बौद्धों पर करारा व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy