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________________ जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान xvii षष्ठ परिच्छेद - नयनिक्षेप कथन की प्रतिज्ञा, श्रुत के सकलादेश एवं विकलादेश रूप उपयोग आदि, नयों का शब्दार्थ रूप विभाजन। सप्तम परिच्छेद - निक्षेप का निरूपण। आचार्य अकलंकदेव ने प्रवचन एवं निक्षेप को स्वोपज्ञवृत्ति में एक ही परिच्छेद में रखा है। अतः उनके अनुसार तो छह परिच्छेद ही हैं। परन्तु लघीयस्त्रय के टीकाकार आचार्य प्रभाचन्द्र और अभयचन्द्रसूरि ने सात परिच्छेदों में विभाजन किया है। लघीयस्त्रय में भट्ट अकलंकदेव ने विविध दार्शनिकों के मतों की समीक्षा करते हुए बड़े ही तार्किक ढंग से जैनन्याय की प्रतिष्ठा की है। मुख्यतः इसमें प्रमाण, नय एवं निक्षेप का संक्षिप्त वर्णन होने से इसे लघीयस्त्रय कहा गया है। २. न्यायविनिश्चय " 480 कारिकाओं वाले इस ग्रन्थ में प्रत्यक्ष, अनुमान और प्रवचन नामक तीन प्रस्ताव हैं। इस पर भट्ट अकलंकदेव द्वारा स्वोपज्ञ वृत्ति भी है। वृत्ति को ग्रन्थ की टीका नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि यह विषय की सूचना प्रध न है। कारिकाओं के पूर्व गद्यात्मक उत्थानिका बड़ी ही महत्त्वपूर्ण है। ग्रन्थ की भाषा अत्यन्त प्रौढ तथा उनकी समालोचना पद्धति अत्यन्त प्रभावक एवं उनकी तीक्ष्ण प्रतिभा की परिचायक है। - प्रथम प्रस्ताव में 1697 कारिकाओं में प्रत्यक्ष प्रमाण का विशद वर्णन किया गया है। इसके अन्तर्गत इन्द्रियप्रत्यक्ष का लक्षण, ज्ञान के परोक्षत्व का खण्डन एवं स्वसंवेदनत्व की सिद्धि, द्रव्य का लक्षण, गुण-पर्याय का स्वरूप, पदार्थ की उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकता का विवेचन, अपोहरूप सामान्यत्व का निराकरण, बौद्धों द्वारा मान्य स्वसंवदेन प्रत्यक्ष, योगि प्रत्यक्ष एवं मानव प्रत्यक्ष का खण्डन, सांख्यों द्वारा स्वीकृत प्रत्यक्ष लक्षण का खण्डन, नैयायिक सम्मत
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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