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जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
प्रायश्चित्त ग्रन्थ भी उपलब्ध है, परन्तु पूर्व में कथित चार मौलिक ग्रन्थ तथा दो टीकाग्रन्थों के अतिरिक्त कृतियाँ असंदिग्ध रूप से अकलंकप्रणीत नहीं कहीं जा सकती हैं।
१. लघीयस्त्रय
जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है कि इसमें छोटे-छोटे तीन प्रकरणों का समावेश है। ये तीन प्रकरण हैं-प्रमाणप्रवेश, नयप्रवेश और निक्षेप प्रवेश। प्रमाणप्रवेश नामक प्रकरण में प्रत्यक्ष, प्रमेय, परोक्ष और आगम नामक 4 परिच्छेद हैं। नयप्रवेश अविभक्त स्वतन्त्र है तथा निक्षेप प्रवेश को प्रवचन एवं निक्षेप नामक दो परिच्छेदों में विभक्त किया गया है। इस प्रकार लघीयस्त्रय में कुल सात परिच्छेद कुल मिलाकर 78 गाथाप्रमाण है। लघीयस्त्रय पर भट्ट अकलंकदेव की स्वोपज्ञ विवृति भी है। इस विवृति में सूचित विषयों की परिपूर्ति की गई है। यह एक अनुपम दार्शनिक ग्रन्थ है। इसके सात परिच्छेदों का वर्ण्य विषय इस प्रकार हैप्रथम परिच्छेद - सम्यग्ज्ञान की प्रमाणता, प्रमाण के प्रत्यक्ष एवं
परोक्ष भेद, प्रत्यक्ष के मुख्य एवं सांव्यवहारिक भेद, सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के इन्द्रिय प्रत्यक्ष एवं
अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष दो भेद तथा उपभेद। द्वितीय परिच्छेद - वस्तु की नित्यानित्यता तथा भेदाभेदात्मकता। तृतीय परिच्छेद _ - मतिज्ञान के नामान्तर तथा उत्तरावस्था में श्रुतज्ञान
व्यपदेश, व्याप्तिग्राही तर्क का प्रामाण्य, अनुमान
का लक्षण, उपमान का अन्तर्भाव आदि। चतुर्थ परिच्छेद - प्रमाणाभास का स्वरूप, श्रुत की प्रमाणता तथा
प्रमाण के स्वरूप, संख्या, विषय एवं फल का
निरूपण। पञ्चम परिच्छेद - नय एवं कुनय का लक्षण, नय के भेद आदि।