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जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
महिमामण्डित.करते हुए उन्हें बौद्ध-रूपी चोरों को दण्डित करने वाला कहा
है
"तर्कभूबल्लभो देवः स जयत्यकलङ्कधीः। जगद्रव्यमुषो येन दण्डिताः शाक्यदस्यवः॥'
इसी प्रकार ब्रह्म अजितसेन ने अकलंकदेव को बौद्धों की बुद्धि को विधवापन प्रदान करने वाला दीक्षागुरु कहा है
'अकलङ्कगुरु यादकलंकपदेश्वरः। बौद्धानां बुद्धिवैधव्यदीक्षागुरुरुदाहृतः॥'
उपर्युक्त कथनों से स्पष्ट है कि भट्ट अकलंकदेव की ख्याति बौद्ध विजेता शास्त्रार्थी विद्वान् के रूप में दिग्दिगान्त में व्याप्त रही है। उनका अनेक बार बौद्ध विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ हुआ तथा वे उस युग में शास्त्रार्थ विजेता के रूप में प्रख्यात हुये, जिस युग में शास्त्रार्थ विद्वत्ता का निकष तथा धर्मप्रचार का प्रमुख साधन समझा जाता था। धनञ्जय कवि ने नाममालाकोश के अन्त में अकलंकदेव के प्रमाण की प्रशंसा करते हुए लिखा है
'प्रमाणमकलंकस्य पूज्यपादस्य लक्षणम्। . धनञ्जयकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम्॥ . अर्थात् अकलंक का प्रमाण, पूज्यपाद का व्याकरण और धनञ्जय कवि का काव्य ये तीनों प्रथम श्रेणी के तीन रत्न हैं। अकलंकदेव द्वारा प्रणीत कृतियाँ -
भट्ट अकलंकदेव द्वारा प्रणीत कृतियों को दो भागों में विभक्त करके देखा जा सकता है। लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय और प्रमाणसंग्रह इनके मौलिक ग्रन्थ हैं तथा तत्त्वार्थवार्तिक और अष्टशती इनके द्वारा रचित टीका ग्रन्थ हैं एवं अकलंकस्तोत्र नामक कृतियाँ भी भट्ट अकलंकदेव द्वारा प्रणीत मानी जाती हैं। अकलंकदेव के नाम पर एक प्रतिष्ठापाठ एवं एक