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________________ जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान थे, अपितु अपमानित करने में अपनी प्रतिष्ठा समझने लगे थे। भट्ट अकलंकदेव का बाल हृदय इससे बड़ा व्यथित होता था। वे चाहते थे कि अध्ययन करके बौद्धों से शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त करें। किन्तु उस समय शिक्षापीठों पर बौद्धों का एकाधिकार था और उनमें जैनों का प्रवेश न केवल वर्जित था अपितु महान् दण्डनीय अपराध माना जाता था। अकलंक ने अपने छोटे भाई निकलंक के साथ छलनीति को अपनाकर कांची की महाबोधि विद्यापीठ में बौद्ध बनकर प्रवेश ले लिया। यह अकलंक के जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना कही जा सकती है। क्योंकि विद्यापीठ में अध्ययन करके उन्होंने तर्कविदग्धता तो प्राप्त करली, परन्तु जैनधर्मावलम्बी होने की वास्तविकता का ज्ञान हो जाने पर उनके. भाई निकलंक को अपनी जान भी गंवानी पड़ी। अकलंक ने निर्ग्रन्थ दीक्षा ध : गरण करके बाद में देशीय गण के आचार्य पद को सुशोभित किया। ___ भट्ट अकलंकदेव के बौद्धों के साथ अनेक बार शास्त्रार्थ हुये और उनमें उन्हें सफलता मिली तथा जैनधर्म की विजय पताका पुन: फहराई। कलिंग देश में रत्नसंचयपुर के राजा हिमशीतल पल्लववंशी सम्राट थे। इनकी रानी मदन सुन्दरी जैनधर्मावलम्बी थी, जबकि राजा हिमशीतल बौद्धगुरु संघश्री के अनुयायी थे। जब रानी ने अष्टाह्निका पर्व में रथयात्रा निकालनी चाही तो राजा हिमशीतल ने संघश्री के कहने से शास्त्रार्थ में विजय की शर्त रख दी। भट्ट अकलंकदेव ने जब यह सुना कि रानी इस कारण आहार ग्रहण नहीं कर रही है तो वे आये और उन्होंने संघश्री के कुंतों को अपने तर्कों से धराशायी कर दिया। संघश्री ने अपने लिए सिद्ध तारादेवी का आश्रय लिया। छह मास तक निरन्तर चलने वाले इस शास्त्रार्थ में देवी चक्रेश्वरी ने उन्हें कुछ निर्देश दिये। बौद्धगुरु का कुचक्र टूट गया, तारादेवी विवश होकर भाग गई। भट्ट अकलंकदेव विजयी हुये। अष्टाह्निका की रथयात्रा धर्मप्रभावनापूर्वक निकाली गई। राजा हिमशीतल ने जैनधर्म को स्वीकार कर लिया। इसी प्रकार राष्ट्रकूटवंश के राजा सहस्रतुंग की सभा में भी भट्ट अकलंकदेव ने बौद्ध-तार्किकों को परास्त किया था। वादिराजसूरि ने पार्श्वनाथचरित में इन्हीं सब कारणों से अकलंकदेव का स्मरण करते हुए उन्हें तर्कभूबल्लभ, अकलंकधी जैसे विशेषणों से
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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