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जैन- न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
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'राजबलिकथे' में उन्हें कांची के ब्राह्मण जिनदास का पुत्र कहा गया है। 'तत्त्वार्थवार्तिक' के प्रथम अध्याय के अंत में एक प्रशस्ति उपलब्ध होती है, जिसमें उन्हें राजा लघुहव्व का पुत्र कहा गया है। उनके जीवनवृत्त के विषय में अन्य जानकारी उपलब्ध नहीं है। हाँ, भट्ट अकलंकदेव के सम्बन्ध में उपलब्ध आंतरिक एवं बाह्य प्रमाणों, प्रचलित आख्यानों. एवं किंवदन्तियों से इतना अवश्य नि:सन्दिग्ध प्रतीत होता है कि उन्होंने दक्षिण भारत में जन्म लेकर वहाँ की वसुन्धरा को अलंकृत किया था।
भट्ट अकलंकदेव ने ‘प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य दूरादस्पर्शनं वरम्' की नीति अपनाकर बाल्यावस्था में ही ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने की ठान ली थी। कहा जाता है कि एक बार उनके माता-पिता ने एक मुनिवर से अष्टाह्निका पर्व में आठ दिन के लिए ब्रह्मचर्य व्रत दिलवाया था। माता-पिता के साथ मुनिवर के दर्शन के लिए गये बालक अकलंक ने तभी से ब्रह्मचारी रहने का अपने मन में संकल्प कर लिया। युवावस्था में पिताजी की प्रेरणा से भी उन्होंने विवाह करना स्वीकार नहीं किया तथा आजीवन इस असिधारा-व्रत का परिपालन किया। — भट्ट अकलंकदेव के समय के विषय में अधिक मतभेद नहीं है। क्योंकि पाश्चात्य एवं प्राच्य इतिहासज्ञ मनीषियों ने उनके काल पर प्रामाणिक मंतव्य प्रस्तुत किये हैं। उनका समय विद्वानों ने सातवीं-आठवीं शताब्दी ई. माना है। श्री पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने विविध प्रमाणों पर आलोचन-प्रत्यालोचन करके उनका समय 620 ई. से 680 ई. तक निर्धारित किया है। डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन, पं. जुगलकिशोर मुख्तार, श्री श्रीकण्ठशास्त्री आदि विद्वानों का मंतव्य भी प्रायः इसी प्रकार का प्रतीत होता है। डॉ. ए.बी. कीथ, डॉ. थामस आदि पाश्चात्य विचारकों तथा डॉ. महेन्द्रकुमार जैन, न्यायाचार्य, डॉ. भाण्डारकर एवं डॉ. के.बी. पाठक आदि प्राच्य विचारकों ने उनका समय आठवीं शताब्दी ईस्वी माना है। यह युग धार्मिक क्षेत्र में बड़ी ही असहिष्णुता का युग था। धार्मिक कट्टरता व्याप्त थी और परिणाम स्वरूप बौद्धधर्मावलम्बी अपने छलपूर्ण तर्कों से जैनों को न केवल पराजित ही कर रहे