SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भट्ट अकलंकदेव और उनका साहित्य उपाध्याय ज्ञानसागर श्रीसमन्तभद्राचार्य और आचार्य सिद्धसेन के ही समान श्रेष्ठ एवं प्रखर तार्किक भट्ट अकलंकदेव का जैनन्याय में अप्रतिम योगदान है। उन्होंने अपनी, प्रभावशाली रचनाओं से न केवल जैनन्याय को अपितु सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय के भाण्डागार की अपूर्व श्रीवृद्धि की है। इससे अधिक उनके अवदान को और क्या आँका जा सकता है कि उनके नाम के साथ जुड़कर जैनन्याय ही भारतीयः न्यायविदों में 'अंकलंक - न्याय' कहा जाने लगा। भट्ट अकलंकदेव 'ऐसे तार्कित हैं, जिन्हें जैनों की दोनों परम्पराओं के महान् ग्रन्थकारों ने समान सम्मान प्रदान किया है तथा उनकी न्यायविषयक प्रस्थापनाओं को स्वीकार किया है। बौद्धदर्शन में जो प्रतिष्ठा धर्मकीर्ति को, चार्वाकों में जो प्रतिष्ठा उसके मत के संस्थापक वृहस्पति को तथा न्यायदर्शन में जो प्रतिष्ठा अक्षपाद गौतम को मिली, वही प्रतिष्ठा सभाओं में तर्कविदग्धता के कारण भट्ट अकलंकदेव को प्राप्त हुई है। दक्षिण भारत में प्राप्त श्रीवादिराजसूरि की प्रशंसा में उत्कीर्ण एक शिलालेख से यह बात स्पष्ट हो जाती है सदसि यदकलङ्कः कीर्तने धर्मकीर्तिः वचसि सुरपुरोधा न्यायवादेऽक्षपादः । इति समयगुरूणामेकतः सङ्गतानां प्रतिनिधिरिव देवो राजते वादिराजः॥' भट्ट अकलंकदेव ने संस्कृत वाङ्मय के श्रेयोमार्ग के पथिक अन्य आचार्यों/कवियों के समान अपने व्यक्तिगत परिचय को अछूता ही रखा है। उन्होंने अपने वंश, माता-पिता आदि के विषय में कुछ भी नहीं लिखा है। न ही इस विषय में कोई अन्य बाह्य प्रबल प्रमाण ही उपलब्ध हैं। फलतः उनके विषय में विषमतायें दृष्टिगोचर होती हैं। कथाकोष में कहा गया है कि अकलंकदेव मान्यखेट के अधिपति शुभतुंग के मन्त्री पुरुषोत्तम के पुत्र थे।
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy