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________________ अकलंकदेवकृत आप्तमीमांसाभाष्य एवं लघीयस्त्र्य के उद्धरणों का अध्ययन 195 लिखते हैं- “अत्र अपरः सौगतः प्राह- “यत्रैव जनयेदेनां तत्रैवास्य प्रमाणता” इति धर्मोत्तरस्य मतमेतत् ।” अन्य अनेक आचार्यों का भी यही कथन है। कारिका संख्या आठ (८) की विवृति में अकलंक ने “अर्थक्रियासमथ परमातर्थसत् इत्यङ्गीकृत्य" इस वाक्यांश का उल्लेख किया है। यह वाक्यांश धर्मकीर्तिकृत प्रमाणवार्तिक की कारिका का अंश है। प्रमाणवार्तिक में पूरी कारिका इस प्रकार पायी जाती है-४ . अर्थक्रियासमर्थं । यत्तदत्र परमार्थसत् । .. अन्यत्संवृतिसत् प्रोक्तम् ते स्वसामान्यलक्षणे।। बारहवीं कारिका की विवृति में “तन्नाप्रत्यक्षव्यतिरिक्तं प्रमाणम्” वाक्य उद्धृत किया है।'.यह किसी बौद्धाचार्य का मत है। यही वाक्य अकलंक ने अपने एक अन्य ग्रन्थ प्रमाणसंग्रह की कारिका १६ की विवृति में भी “अयुक्तम्” करके उद्धृत किया है। वहाँ पर “प्रमाणम्" के स्थान पर “मानम्” पाठ मिलता है। . तेइसवीं कारिका की. विवृति “सर्वतः संहृत्य चिन्तां स्तिमितान्तरात्मना स्थितोऽपि चक्षुषां रूपं" इत्यादि वाक्य से प्रारम्भ होती है । यह वाक्य भी प्रमाणवार्तिक की कारिका का अविकल रूप है। कारिका इस प्रकार है-८ ___. • संहृत्य सर्वतश्चिन्तां स्तिभितेनान्तरात्मना। स्थितोऽपि चक्षुषा रूपमीक्षते साक्षजा मतिः ।। . २८वीं कारिका की विवृत्ति में अकलंकदेव ने “वक्तुरभिप्रेतं तु वाचः सूचयन्ति अविशेषेण नार्थतत्वमपि”- वाक्य उद्धृत किया है। इसका ठीक ठीक स्रोत तो नहीं मिलता, परन्तु प्रमाणवार्तिक (१/६७, पृ० ३०) की मनोरथ नन्दिनी टीका (पृ० ३०) एवं मोक्षाकरगुप्तकृत तर्कभाषा (पृ०४) आदि में उक्त उद्धरण का भाव अवश्य १. सिद्धिविनिश्चय, उत्तरार्द्ध, पृष्ठ ६१ २. तत्त्वार्थलोकवार्तिक, पृ० १७७, २००, ३१६; प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० १०३०; सन्मतितर्कटीका पृ० ५१२; स्याद्वाद - स्त्नाकर, पृष्ठ.८६, शास्त्रवार्तासमुच्चय टीका, पृष्ठ १५१ उ० पर भी यही कथन मिलता है परन्तु न्यायावतार के टीकाकार ने इसे निम्न रूप में उद्धृत किया है- “यत्रैवांशे विकल्पं जनयति तत्रैवास्य प्रमाणता इति वचनात्।" न्यायावतार टीका पृष्ठ-३१, द्रष्टव्य-न्यायकुमुदचन्द्र, भाग-१, पृष्ठ ६६, टिप्पणी संख्या ११ ३. लघीयस्त्रय, कारिका ८ विवृति ४. प्रमाणवार्तिक २/२३, पृष्ठ १०० ५. लघीयस्त्रय, कारिका १२ विवृति ६. अयुक्तम्- “नाऽर्थप्रत्यक्षमनुमानव्यतिरिक्तं मानम्”- प्रमाण संग्रह (अकलंकग्रन्थत्रयान्तर्गत), सिंघी ग्रन्थमाला, १६३६ ईस्वी, कारिका १६, पृष्ठ १०१ ७. लघीयत्रय, कारिका २३ ८. प्रमाणवार्तिक, २/१२४ ६. लघीयस्त्रय, कारिका २८
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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