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मिलता है।'
कारिका संख्या ४१ की विवृति में " गुणानां परमं रूपं ” - इत्यादि कारिका उद्धृत की गई है। शांकरभाष्य पर भामती टीका के कर्ता वाचस्पति मिश्र ने इसे वार्षगण्यकृत बताया है- अतएव योगशास्त्रं व्युत्पादयितुमाह स्म भगवान् वार्षगण्यः गणानां परमं रूपं................। योगसूत्र की तत्त्ववैशारदी एवं योगसूत्र की भास्वती, पातंजल रहस्य' में इसे षष्टितन्त्रशास्त्र की कारिका बताया है जैसे
जैन- न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
षष्टितन्त्रशास्त्रस्यानुशिष्टि :-गुणानां परमं- इत्यादि।
और योगभाष्य में इस कारिका को उद्धृत करते कहा गया है- तथा च शास्त्रानुशासनम् - गुणानां परमं रूपं -- ६ ।
कारिका ४४ की विवृति में " नहि बुद्धेरकारणं विषयः ” यह वाक्य उद्धृत है । " . इसका मूल स्थान अभी नहीं मिल नहीं सका है।
कारिका ५४ की विवृति में अकलंक ने “ततः सुभाषितम् ” करके “इन्द्रियमनंसी . कारणं विज्ञानस्य अर्धो विषयः” यह वाक्य उद्धृत किया है। यह किस शास्त्र का वाक्य है, इसका पता नहीं चलता ।
उक्त वाक्य वादिराजसूरिकृत न्यायविनिश्चय विवरण में भी उद्धृत है - “इन्द्रियमनसी विज्ञानकारणमिति वचनात् ।” तथा विद्यानन्दि ने भी अपने श्लोकवार्तिक में अकलंक के सन्दर्भ सहित इसे उद्धृत किया है -
६
“तस्मादिन्द्रयमनसी विज्ञानस्य कारणं नार्थोऽपीत्यकलंकैरपि” ।
सत्तावनवीं कारिका की विवृति में “नाननुकृतान्वयव्यतिरेकं कारणं नाकारणं विषयः” वाक्य को उद्धृत करते हुए अकलंक ने इसे वालिशगीत कहा है। यह वाक्य
१. न्यायकुमुदचन्द्र, भाग- २, पृष्ठ ६०० -६०१, टिप्पण ६ श्री सत्गुरु प्रकाशन, दिल्ली, १६६१ ईस्वी
२. लघीयस्त्रय, कारिका ४१ वृि
३. शांकरभाष्य, भामती पृ० ३५२
४. योगसूत्र तत्त्ववैशारदी ४ / १३
५. योगसूत्र, भास्वती, पातंजल रहस्य ४ / १३
६. योगभाष्य ४ / १३, द्रष्टव्य - न्यायकुमुदचन्द्र भाग - २, पृष्ठ ६२८ टिप्पण
७. लघीयस्त्रय, कारिका ४४
८. वही, कारिका ५४
६. न्यायविनिश्चय विवरण, पृ० ३२ ए, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, पृ० ३३०, द्रष्टव्य-न्यायकुमुदचन्द्र भाग - २, टिप्पण ५ पृष्ठ
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१०. लघीयस्त्रय, कारिका ५४ विवृति