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जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
नित्यत्वैकान्पक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते" यह वाक्य आप्तमीमांसा की ही एक कारिका का पूर्वार्ध है।' कारिका १०६ के भाष्य में अकलंक ने “तथोक्तम्” करके एक उद्धरण दिया .
“अर्थस्यानेकरूपस्य धीः प्रमाणं तदंशधीः ।
नयो धर्मान्तरापेक्षी दुर्णयस्तन्निराकृतिः।। इस कारिका का प्रथम चरण अकलंकदेवकृत न्यायविनिश्चय की कारिका संख्या २६६ से ज्यों का त्यों मिलता है परन्तु शेष भाग नहीं मिलता। न्यायविनिश्चय की . . कारिका इस प्रकार है।
- अर्थस्यानेकरूपस्य कदाचित्कस्यचित्क्वचित्।
शक्तावतिशयाधानमपेक्षातः प्रकल्प्यते।। यह भी संभव है कि अकलंक की इन दोनों कारिकाओं का निर्देश स्थल या, आधार कोई अन्य ग्रन्थ हो, और उसी के अनुसार अकलंक ने न्यायविनिश्चय की कारिका का संगठन किया हो। किसी सबल प्रमाण के बिना निश्चित रूप से कुछ भी कहना कठिन है। २. सविवृतिलघीयस्त्रय -
___ लघीयस्त्रय में अकलंकदेव ने कुल आठ (८) उद्धरणों का प्रयोग किया है।' कारिका संख्या ३ (तीन) की विवृति में अकलंकदेव ने “अपर" शब्द के द्वारा किसी वादी के मत का उल्लेख किया है वे लिखते हैं- “नहि तत्त्वज्ञानमित्येव यथार्थनिर्णयसाधनम्" इत्यपरः। इस कथन को व्याख्याकर प्रभाचन्द्राचार्य ने दिङ्नाग का मत बतलाया है। इस विवृति का व्याख्यान करते हुए प्रभाचन्द्र ने लिखा है-६ हि यस्मात् न तत्त्वस्य परमार्थस्य ज्ञानमित्येव यथार्थनिर्णयसाधनम् अपितु किञ्चिदेव, तदैव च प्रमाणम्। तदुक्तम्- “यत्रैव जनयेदेनां तत्रैवास्य प्रमाणता" इत्यपरः- दिङ्नागादिः।
परन्तु सिद्धिविनिश्चय के टीकाकार ने इसे धर्मोत्तर का मत बतालाया है। वे
१. वही, कारिका ३७ २. वही, कारिका १०६ ३. न्यायविनिश्चयः, सम्पादक-महेन्द्र कुमार शास्त्री (अकलंकग्रन्थत्रयान्तर्गत) सिंधी ग्रन्थमाला, १६३६ ईस्वी, कारिका
२६६, पृष्ठ ७० ४. लघीयस्त्रय (स्वोपज्ञविवृति सहित), अकलंकग्रन्थत्रयान्तर्गत, सिंघी ग्रन्थमाला, ईस्वी १६३६ ५. वही, कारिका विवृति ३ ६. न्यायकृमुदचन्द्र १/३, पृष्ठ ६६