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जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
में भी किया गया है
इन्द्रियाणां प्रवृत्तौ च निवृत्तौ च मनः प्रभुः ।
मन एव जयत्ततस्माज्जिते तस्मिज्जितेन्द्रियः ।। (श्लोक, ७६) अर्थात् इन्द्रियों की प्रवृत्ति और निवृत्ति का प्रेरक मन ही है। अतः एक मन को ही जीतना चाहिए। उसे जीत लेने पर ही जीत जितेन्द्रिय होता है। . .
निष्कर्ष यह कि शुभोपयोग के बिना शुभयोग असंभव है। अतः कुछ विद्वानों का यह मानना कि मिथ्यादृष्टि मुनि शुभोपयोग के द्वारा नहीं, अपितु शुभयोग के द्वारा ग्रैवेयक पर्यन्त देवायु का बन्ध करता है, अकलंकदेव के मत के विरुद्ध है। ... कुन्दकुन्द के वचनों से अकलंक के मत की पुष्टि :
अकलंकदेव के मत की पुष्टि आचार्य कुन्दकुन्द के निम्नलिखित वचनों से. होती है।
रागो पसत्थभूदो वत्थुविसेसेण फलदि विवरीदं । णाणाभूमिगदाणिह बीजाणिव सस्सकालम्हि।। . छदुमत्थविहितवत्थुसु वदणियमज्झयणझाणदाणरदो।' ण लहदि अपुणब्भावं भावं सादप्पगं लहदि। अविदिदपरमत्थेसु य विसयकसायाधिगेसु परिसेसु।
जुटुं कदं व दत्तं फलदि कुदेवेसु मनुजेसु ।। (प्रवचनसार ३/५५-५७) भाव यह है कि जैसे कृषि के समय बोये गये वही बीजं भिन्न-भिन्न भूमियों में जाकर भिन्न-भिन्न रूप से फलित होते हैं वैसे ही वही प्रशस्तरागरूप शुभोपयोग (एकस्यापि प्रशस्तरागलक्षणस्य शुभोपयोगस्य- वही, त०दी० ३/५५) परस्पर विपरीत पात्रों या पदार्थों का अवलम्बन कर विपरीत फल देता है। उदाहरणार्थ, जब प्रशस्तराग रूप शुभोपयोग सर्वज्ञप्रणीत देवादि की भक्ति तथा व्रतादि के अनुष्ठान में प्रवर्तित होता है तब उसका फल पुण्योपचयपूर्वक मोक्ष की प्राप्ति होती है किन्तु जब छद्मस्थों (पुण्य को ही मुक्ति का कारण बतलाने वाले जैन साधुओं - वही, ता० वृ० ३/५६) के द्वारा प्रणीत व्रतादि में लगता है तब उससे केवल सुदेव और सुमनुजत्वरूप सातात्मक फल की प्राप्ति होती है तथा जब परमार्थ ज्ञान से शून्य तथा विषयकषायाधिक से ग्रस्त पुरुषों की सेवा, दान आदि में प्रवर्तित होता है तब कुदेव और कुमनुजत्वरूप फल का कारण बनता है।
इससे स्पष्ट है कि प्रशस्तरागरूप शुभोपयोग समीचीन पदार्थों में भी. प्रवर्तित होता है और असीमीचीन पदार्थों में भी। जो सम्यग्दृष्टि होते हैं उनका शुभोपयोग