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________________ अकलंकदेव के अनुसार शुभोपयोग के स्वामी 187 आजीविकों का सहस्रार पर्यन्त उपपाद होता है। अन्यलिंगियों का उससे ऊपर उपपाद नहीं होता। जो मिथ्यादृष्टि निग्रंथलिंगधारी होते हैं और उत्कृष्ट तप के द्वारा पुण्यबन्ध करते हैं उन्हीं की उत्पत्ति अन्तिम प्रैवेयक तक होती है। उससे ऊपर सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र के प्रकर्ष से युक्त जीवों का ही जन्म होता है, अन्य का नहीं। श्रावकों का जन्म सौधर्म से लेकर अच्युतस्वर्ग पर्यन्त होता है, न इससे नीचे, न इससे ऊपर। इस प्रकार परिणामों की विशुद्धि के प्रकर्ष (उत्तरोत्तरवृद्धि) से ही ऊपर-ऊपर के कल्प में स्थान की प्राप्ति होती है। ऐसा समझना चाहिए। _ विशुद्ध परिणाम, शुभ परिणाम और शुभोपयोग एकार्थक हैं जैसा कि निम्नकथन से ज्ञात होता है- “अथायमुपयोगो द्वेधा विशिष्यते शुद्धाशुद्धत्वेन । तत्र शुद्धो निरुपरागः, अशुद्धः सोपरागः । स तु विशुद्धिसंक्लेशरूपत्वेन द्वैविध्यादुपरागस्य द्विविधः शुभोऽशुभश्च ।” (प्रवचनसार, तब्दी० २४६३, अतः उपर्युक्त विवरण से भी प्रमाणित होता है कि भट्ट अकलंकदेव के मत से संज्ञी सम्यग्दृष्टि में ही नहीं, संज्ञी मिथ्यादृष्टियों में भी शुभोपयोग होता है। ____ तत्त्वार्थसूत्र में मन-वचन-काय के व्यापार को योग कहा गया है (६/१) और शुभयोग को पुण्य के आंसव का तथा अशुभयोग को पाप के आसव का हेतु बतलाया गया है (६/३)। यहाँ अकलंकदेव ने प्रश्न उठाया है कि योग को शुभ और अशुभ किस आधार पर कहा गया हैं ?- “कथं योगस्य शुभाशुभत्वम्” इसके समाधान में वे कहते हैं . “शुभाशुभपरिणामनिवृत्तत्वाच्छुभाशुभव्यपदेशः। शुभपरिणामनिवृत्तो योगः शुभः, अशुभपरिणामनिवृत्तश्चाशुभः इति कथ्यते।” (रा०वा०६/३) अर्थ- शुभ और अशुभ परिणाम से निष्पन्न होने के कारण शुभ और अशुभ कहा. गया है। शुभ परिणाम से निष्पन्न योग शुभ और अशुभ परिणाम से निष्पन्न योग अशुभं कहलाता है। - इससे सिद्ध है कि शुभयोग-शुभोपयोग का अविनाभावी है। अतः अभव्य मिथ्यादृष्टि मुनि जो नवम ग्रैवेयक तक की देवायु का बन्ध करता है, शुभोपयोग के द्वारा ही करता है। अकलंकदेव ने स्वयं राजवार्तिक (४/२१) के पूर्वोद्धृतभाष्य में ऐसा कहा है। शुभोपयोग से प्रेरित होकर ही अभव्य मिथ्यादृष्टि मुनि की मन-वचन-काय की क्रियाएं शुभकार्यों में प्रवृत्त होती हैं। उपयोग में जो शुभाशुभविकल्पजालरूपं मन होता है ('नानाविकल्पजालरूपं मनो भण्यते'- बृहद्रव्यसंग्रहटीका, १२) वही वचन और काय की क्रियाओं का प्रेरक है। इस मनोवैज्ञानिक नियम का उल्लेख तत्त्वानुशासन
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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