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________________ अकलंकदेव के अनुसार शुभोपयोग के स्वामी 189 समीचीन पदार्थों में ही प्रवर्तित होता है और जो मिथ्यादृष्टि होते हैं उनका शुभोपयोग असमीचीन पदार्थों में प्रवर्तित होता है। अतः शुभोपयोग सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों को होता है। यही बात उक्त गाथाओं की व्याख्या करते हुए आचार्य जयसेन ने भी कही है “अयमत्र भावार्थः-यथा जघन्यमध्यमोत्कृष्टभूमिवशेन तान्येव बीजानि भिन्न-भिन्नफलं प्रयच्छन्ति तथा स एव बीजस्थानीयशुभोपयोगो भूमिस्थानीयपात्रभूतवस्तुविशेषेण भिन्न-भिन्नफलं ददाति। तेन किं सिद्धम् ? यदा पूर्वसूत्रकथितन्यायेन सम्यक्त्वपूर्वकः शुभोपयोगो भवति तदा मुख्यवृत्त्या पुण्यबन्धो भवति परम्परया निर्वाणं च।” (प्रवचनसार, ता०वृ० ३/५५) अर्थ- जैसे जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भूमि को पाकर वही बीज भिन्न-भिन्न फल देते हैं वैसे ही वही शुभोपयोग पात्रभूत वस्तुविशेष के आश्रय से भिन्न-भिन्न फल देता है। इससे यह सिद्ध हुआ है कि जब पूर्वसूत्र (पूर्वगाथा ३/५५) में दिये गये दृष्टान्त के अनुसार शुभोपयोग सम्यक्त्वपूर्वक होता है तब मुख्यरूप से पुण्यबन्ध होता है और परम्परया निर्वाण । अन्यथा (नो चेत्) अर्थात् शुभोपयोग के सम्यक्त्वपूर्वक न होने पर अर्थात् मिथ्यात्वपूर्वक होने पर केवल पुण्यबन्ध होता है (परम्परया निर्वाण नहीं)। मिथ्यादृष्टि में शुभोपयोग के निषेधक विद्वान अपने मत के समर्थन में एक ही प्रमाण देते हैं। वह यह कि आचार्य जयसेन ने प्रवचनसार गाथा १/६ की टीका में कहा है कि पहले से तीसरे गुणस्थान तक उत्तरोत्तर घटता हुआ अशुभोपयोग रहता है, चौथे से छठवें तक उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ शुभोपयोग, सातवें से बारहवें गुणस्थान तक उत्तरोत्तर वृद्धिंगत शुद्धोपयोग तथा अन्तिम दो गुणस्थानों में शुभोपयोग का फल रहता है। - किन्तु इस कथन से यह निष्कर्ष निकालना कि प्रथम तीन गुणस्थानों में सर्वथा अशुभोपयोग ही होता है, शुभोपयोग कदापि नहीं अथवा चौथे से छठे गुणस्थानों में शुभोपयोग ही एकान्ततः होता है, अशुभोपयोग सर्वथा नहीं, आगमविरुद्ध है। गुणस्थानों में अशुभोपयोगादि का यह विभाजन प्रधानता की अपेक्षा से है, सर्वथा नहीं। स्वयं आचार्य जयसेन ने निम्नलिखित व्याख्यान में चतुर्थ और पंचम गुणस्थानवर्ती गृहस्थों के आर्तरौद्रध्यानरूप अशुभोपयोग का होना बतलाया गया है- “विषयकषायनिमित्तेनोत्पन्नेनार्तरौद्रध्यानद्वयेन परिणतानां गृहस्थानामात्माश्रितनिश्चयधर्मस्यावकाशो नास्ति, वैयावृत्त्यादिधर्मेण दुर्ध्यानवञ्चना भवति।” (प्रवचनसार,
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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