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भट्टाकलंकदेव का उत्तरवर्ती आचार्यों पर प्रभाव
सकते हैं और उनसे अष्सहस्री को पुष्ट कर सकते हैं और ये हरिवंश पुराण ( ई० ७८३) में स्मृत हो सकते हैं। ये अकलंक के पूर्व समकालीन होकर भी अकलंक की अष्टशती के द्रष्टा अवश्य रहे हैं, तभी इनकी उक्तियों से विद्यानन्द की अष्टसहस्री परिपुष्ट हो सकती है।
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कुमारनन्दि
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इनका उल्लेख विद्यानन्द ने अपनी प्रमाण परीक्षा में किया है । तत्त्वार्थश्लोक-वार्तिक ( पृ० २८० ) में इनके वादन्याय ग्रन्थ का उल्लेख कुमारनन्दि नाम के साथ किया गया है । यथा
कुमारनन्दिनश्चाहुर्वादन्यायविचक्षणाः।
पत्र- परीक्षा (पृ० ३) में कुमारनन्दिभट्टारकैः स्ववादन्याये निगदितत्वात्' लिखकर'प्रतिपाद्यानुरोधेन प्रयोगेषु पुनर्यथा । प्रतिज्ञा प्रोच्यते तज्ज्ञैः तथोदाहरणादिकम् ।। न चैव साधनस्येकलक्षणत्वं विरुध्यते । हेतुलक्षणता पायादन्याशस्य तथोदितम् ।। अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं लिङ्गमङ्ग्यते । प्रयोगपरिपाटी तु प्रतिपाद्यानुरोधतः । । ये तीन श्लोक उद्धृत किए हैं ।
• ' गंगवंश के पृथ्वीकोंगणि महाराज के एक प्रदानपत्र' (शक सं० ६६८, ई०७७६) में चन्द्रनन्दि को दिये गये दान का उल्लेख है । इस दानपत्र में कुमारनन्दि की गुरु . परम्परां दी है। अतः इनका समय ई० ७७६ के आसपास सिद्ध होने से ये भी अकलंक के समकालीन हैं । इनके वादन्याय पर सिद्धिविनिश्चय के जल्पसिद्धि प्रकरण का प्रभाव इसलिए माना जा सकता है कि इनके नाम से उद्धृत श्लोकों में अकलंक-न्याय की पूरी-पूरी छाप है ।
आ० विद्यानन्द :
ये अकलंक की अष्टशती के व्याख्याकार हैं। आप्तपरीक्षा की प्रस्तावना में पश्चिमी गंगवंशी नरेश श्री पुरुष के उत्तराधिकारी शियमार द्वितीय ( ई० ८ १०) का तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक की प्रशस्ति में उल्लेख देखकर इनकी ग्रन्थ रचना का समय इस प्रकार दिया गया है- “विद्यानन्द महोदय और तत्त्वार्थलोकवार्तिक शिवमार द्वितीय के समय (ई० ८१०) आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा और युक्त्यनुशासनालङ्कृति- ये तीन कृतियाँ राचमल्ल सत्यवाक्य प्रथम ( ई० ८१६ - ८३०) के राज्यकाल में बनी है क्योंकि