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________________ 178 -न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान जैन “प्रमाणप्रकाशितार्थप्ररूपको नयः । अयं वाक्यनयः तत्त्वार्थभाष्यगतः ।” - जय ध० प्रथम भाग, पृ० २१० । नय का यह लक्षण तत्त्वार्थवार्तिक ( १ / ३३ ) का है । इन्होंने धवला टीका में सिद्धिविनिश्चय का भी यह अवतरण लिया है सिद्धिविनिश्चये उक्तम्- “अवधि विभंगयोरवधिदर्शनमेव” 'धवला टीका' वर्गणा खण्ड, पु० १३, पृ० ३५६ । किन्तु यह वाक्य प्रस्तुत सिद्धिविनिश्चय में नहीं मिला। श्रीपाल : श्रीपाल वीरसेन के शिष्य थे । ये जिनसेन के संधर्मा और गुरुभाई थे। इन्होंने. अपनी बाल्यावस्था में अकलंक के दर्शन अवश्य किए होंगे। तत्त्वार्थभाष्य के परिशीलनकर्त्ता भी अवश्य रहे होंगे। जिनसेन : महापुराण आदि के रचयिता जिनसेन वीरसेन के साक्षात् शिष्य थे। इन्होंने अकलंक के निर्मल गुणों का स्मरण किया है। इनका समय ई० ७६३-८४३ है। ये अपनी बाल्यावस्था में अकलंक के दर्शन कर सकते हैं। कुमारसेन : जिनसेन के हरिवंशपुराण (शक सं० ७०५, ई० ७८३ ) में कुमारसे स्मरण इन शब्दों को किया है आकूयारं यशो लोके प्रभाचन्द्रोदयोज्ज्वलम् । गुरोः कुमारसेनस्य विचरत्याजितात्मकम् ।। देवसेन के कथनानुसार वीरसेन के शिष्य विनयसेन, उनके शिष्य कुमारसेन ने काष्ठासंघ की स्थापना की थी । विनयसेन की प्रेरणा से जिनसेन ने पार्श्वभ्युदय की रचना की थी। आचार्य विद्यानन्द अपनी अष्टसहस्री को कुमारसेन की उक्तियों से वर्धमान बताते हैं। मल्लिषेण प्रशस्ति में अकलंकदेव से पहिले और सुमातिदेव के बाद एक कुमारसेन का उल्लेख इस प्रकार किया गया है उदेत्य सम्यग्दिशि दक्षिणस्यां कुमारसेनो मुनिरस्तमापत्। तत्रैव चित्रं जगदेकभानोस्तिष्ठत्यसौ तस्य तथा प्रकाशः ।। अतः अकलंक के पूर्व में उल्लिखित कुमारसेन का समय भी अन्ततः ई० ७२०-८०० सिद्ध होता है। इनके अन्तिम समय में विद्यानन्द इनकी उक्तियों को सुन
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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