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भट्टाकलंकदेव का उत्तरवर्ती आचार्यों पर प्रभाव
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अकलंकदेव एक बहुगुणी प्रतिभा सम्पन्न आचार्य थे। इन्होंने तत्त्वार्थवार्तिक और अष्टशती -ये दो ग्रन्थ टीका ग्रन्थ के रूप में और लघीयस्त्रय सवृत्ति, न्याय विनिश्चय सवृत्ति, प्रमाण संग्रह और सिद्धि विनिश्चय सवृत्ति इस प्रकार इन चार स्वतंत्र ग्रन्थों की रचना की है।
भट्टाकलंकदेव ने जैनन्याय के विषय में जिन विचारों और व्यवस्थाओं का प्रतिपादन किया था प्रायः सभी उत्तरवर्ती दिगम्बर और श्वेताम्बर सभी दार्शनिक आचार्यों ने पूर्णतया स्वीकार किया है। उनके दार्शनिक विचारों को प्रामाणिक आधार मानकर सभी उत्तवर्ती ग्रन्थकारों ने अपने न्याय-ग्रन्थों की रचना की है। केवल शान्तिसूरि और मलयगिरि आचार्य ने उनके विचारों से अपना मतभेद प्रकट किया है।
अजैन ग्रन्थों में अकलंकदेव का उल्लेख केवल एक बार हुआ। दुर्वेक मिश्र ने अपने धर्मोत्तर प्रदीप के पृष्ठ २४६ पर अकलंकदेव के नाम से सिद्धिविनिश्चय का उद्धरण दिया है।
__ अकलंक के उत्तरवर्ती जैननाचार्यों पर उनका महान् प्रभाव पड़ा। उन्होंने अपने ग्रन्थों में अकलंक का बड़े आदर के साथ उल्लेख किया, अपने ग्रन्थों में प्रमाण रूप में उनके उद्धरण उल्लिखित किये और उनकी आलोचना की हैं।
अकलंकदेव से प्रभावित कतिपय आचार्य धनंजय कवि :
.धनंजय कवि आठवीं सदी के आचार्य हैं। इन्होंने द्विसन्धान महाकाव्य और नाममालाकोश लिखा है। इन्होंने अपनी नाममाला के अन्त में आचार्य अकलंकदेव का . उल्लेख करते हुए
प्रमाणमकलंकस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् ।
. धनंजयकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् ।। लिखकर अकलंक के प्रमाण शास्त्र की प्रशंसा की। वीरसेनचार्य :
आचार्य वीरसेन षट्खण्डागम की धवला टीका तथा कषायपाहुड की जय धवला टीका के रचयिता हैं। इन्होंने अकलंकदेव का उल्लेख पूज्यपाद भट्टारक के नाम से तथा उनके तत्त्वार्थवार्तिक का तत्त्वार्थभाष्य के नाम से इस प्रकार किया है
"पूज्यपादभट्टारकैरप्यभाणि सामान्यनय-लक्षणमिदमेव दद्यत्था प्रमाणप्रकाशितार्थप्ररूपको नयः” (धवला टीका- पृ० ७००)