________________
भट्राकलंकदेव का उत्तरवर्ती आचार्यों पर
प्रभाव
डा० प्रकाशचन्द्र जैन* श्रीमद् भट्टाकलंकदेव को यदि जैनन्याय का प्रतिष्ठापक कहा जाए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। श्रीमदकलंकदेव ने अपने पूर्ववर्ती श्री समन्तभद्र और सिद्धसेन के प्राचीन आगम सम्बन्धी शब्दों और परिभाषाओं को दार्शनिक रूप प्रदान किया और उसके आधार पर अकलंकन्याय की स्थापना की। यद्यपि जैनशास्त्रों की दीर्घ परम्परा में सम्बन्धी चर्चाएं यत्र-तत्र बिखरी हुई थीं, परन्तु उनको व्यवस्थित और भेद-प्रभेद सम्पन्न स्वरूप प्रदान करने का बहुत कुछ श्रेय श्रीमदकलंकदेव को ही दिया जा सकता है। बौद्धदर्शन में धर्मकीर्ति, मीमांसादर्शन में कुमारिलभट्ट, प्रभाकर दर्शन में प्रभाकर मिश्र, न्यायवैशेषिक में उद्योतकर और वेदान्त में जो स्थान शंकराचार्य को प्राप्त है, वही स्थान जैनन्याय में श्री अकलंकदेव को प्राप्त है।
. ईसा की सप्तम, अष्टम और नवम शताब्दियाँ, मध्यकालीन दार्शनिक इतिहास की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और क्रान्तिकारी शताब्दियां थीं। इन शताब्दियों में भिन्न-भिन्न दर्शनों ने अपने दर्शनों को विरोधियों की आलोचना से बचाने के साथ-साथ अन्य दर्शनों पर विजय प्राप्त करने के लिए भी अभियान भी चलाए। इन शताब्दियों में बड़े-बड़े दार्शनिक शास्त्रार्थ भी हुए और सभी ने अपनी यशोगाथाओं का जी भर कर नगाड़ा पीटा। इस युग की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि दार्शनिक आचार्यों ने अपने सिद्धान्त के प्रतिपादन की अपेक्षा परपक्ष के खण्डन पर ही विशेष बल दिया था।
इसी युग में जैन विद्वान् भट्टाकलंकदेव ने जैनन्याय के ऐसे अभेद्य दुर्ग का निर्माण किया था जो कि निरन्तर पर दार्शनिकों के खण्डन प्रहारों को सहन करता हुआ भी आज तक पूर्णतया सुरक्षित है। उत्तरवर्ती शिलालेखों और ग्रन्थकारों के उल्लेखों में भट्टाकलंकदेव की यशोगाथाएं अमरत्व को प्राप्त किए हुए हैं। भट्टाकलंक देव एक सत्तर्क कुशल सकल समयवेत्ता आचार्य थे। उनके सैद्धान्तिक वैदुष्य, अनेकान्त दृष्टि, स्याद्वाद भाषा और तर्क नैगुण्य के दर्शन उनके ग्रन्थों में सर्वत्र प्राप्त हैं।
• समन्तभद्र संस्कृत महाविद्यालय, दरियागंज, दिल्ली