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विज्ञानवाद पर आचार्य अकलंक और उनके टीकाकार
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उन्होंने पदार्थों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया है- परिकल्पित लक्षण, परतन्त्रलक्षण और परिनिष्पन्न लक्षण। ___ जैन दार्शनिकों ने भी वस्तुतः प्रमेय एक ही माना है और वह है द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु। प्रमाता की नाना प्रकार की शक्ति या योग्यता के कारण ही नाना प्रकार का ज्ञान होता है। धर्मकीर्ति ने प्रमेय को एक माना और प्रतीति के आधार पर स्व और पर रूप से उसके दो प्रकार सिद्ध किये। उसी प्रकार जैन दार्शनिकों ने भी द्रव्यपर्यायात्मक एक वस्तु को ही प्रमेय मानकर सामग्री के भेद से उसी की विशद और अविशद रूप से होने वाली प्रतीति के आधार पर उसे प्रत्यक्ष और परोक्ष कहा है। जैनों का प्रत्यक्ष प्रमेय धर्मकीर्ति का स्वलक्षण है और विज्ञानवाद का भी और परोक्ष प्रमेय सामान्य लक्षण है। दोनों में अन्तर यह है कि बौद्ध दार्शनिक सामान्य को अवस्तुभूत मानते हैं, पर जैन सामान्य को वस्तुभूत स्वीकार करते हैं। जैन दार्शनिक वस्तु को द्रव्यपर्यायात्मक मानते हैं पर धर्मकीर्ति इसके पक्ष में नहीं है। वे एकान्तवाद की ओर झुकते दिखाई देते हैं। जैन वस्तु के परारूप को अपेक्षित होते हुए भी वास्तविक मानते हैं, पर बौद्ध उसे वासनाजन्य कल्पित स्वीकार करते हैं। __. इस प्रकार संक्षेप में आलयविज्ञान और उससे सम्बद्ध तत्त्वों पर जैन दर्शन की दृष्टि से विचार किया और यह देखा कि किस प्रकार वे जैन दार्शनिक तत्त्वों के साथ साम्य और वैषम्य रखते हैं। साथ ही यह भी समझने का प्रयत्न किया कि समूचे विज्ञानवाद को अकलंक और उनके टीकाकारों ने किस प्रकार समझा। वसुबन्धु, दिङ्नाग, धर्मकीर्ति आदि बौद्ध दार्शनिकों ने अकलंक आदि जैन दार्शनिकों को समग्र रूप से काफी प्रभावित किया है। इस विषय पर स्वतंत्र रूप से शोध किया जाना चाहिए।
१. त्रिंशिका विज्ञप्ति०, पृ० १०१ २. अनेकान्तात्मकं वस्तु गोचर सर्वसंविदाम, न्यायावतार, का० २६; लघीयस्त्रय-७ ३. लघीयस्त्रय, का० ५७, अष्टशाती, पृ० २६-३०; प्रमेयकमलमार्तण्ड २।३