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________________ 160 जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान यद्यपि संकुचित विचार के दृष्टिकोण से देखने पर वे सम्प्रदाय से दिगम्बर दिखाई देते हैं और उस संप्रदाय के जीवन के वे प्रबल बलवर्द्धक और प्राणपोषक आचार्य प्रतीत होते हैं, तथापि उदारदृष्टि से उनके जीवनकार्य का सिंहावलोकन करने पर, वे समग्र आहेतदर्शन के प्रखर प्रतिष्ठापक और प्रचण्ड प्रचारक विदित होते हैं। अतएव समुच्चय जैन संघ(श्वे०दि०सभी) के लिए वे परम पूजनीय और परम श्रद्धेय मानने योग्य । युगप्रधान पुरुष हैं।' तत्त्वार्थवार्तिक एक टीकाग्रन्थ होते हुए भी स्वतंत्र और प्रामाणिक ग्रन्थ है। इसकी रचना आचार्य पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धि टीका पर आधारित है। सर्वार्थसिद्धि की वाक्य रचना, सूत्र जैसी संतुलित और परिमित है, यही कारण है कि अकलंकदेव ने प्रायः उसके सभी विशेष वाक्यों के अपने वार्तिक बना लिये और उन पर भाष्य लिखकर व्याख्यान किया। विषय और प्रसंगानुसार अनेक नये वार्तिकों की भी रचना की है, पर सर्वार्थसिद्धि का उपयोग पूरी तरह से किया। जिस प्रकार वृक्ष बीज में समाविष्ट हो जाता है उसी प्रकार समस्त सर्वार्थसिद्धि तत्त्वार्थवार्तिक और उसके भाष्य में समाविष्ट है, पर विशेषता यह है कि सर्वार्थसिद्धि के विशिष्ट अभ्यासी तक को भी यह प्रतीति नहीं हो पाती कि वह प्रकारान्तर से सर्वार्थसिद्धि का अध्ययन कर रहा है। जहाँ सर्वार्थसिद्धि के प्रायः अधिकांश वाक्यों का किसी न किसी रूप में वार्तिक का भाष्य लिखा गया है। वहीं प्रसंगानुसार सर्वार्थसिद्धि. की अनेक पंक्तियों को ही नहीं अपितु उसके अनेक अनुच्छेदों को तत्त्वार्थवार्तिक में आ० अकलंकदेव ने प्रंसगानुसार समाहित किया है। सूत्रों की भूमिका एवं प्रसंग को तो प्रायः जहाँ का तहाँ आ० अकलंकदेव ने उद्धृत किया है। यहाँ प्रस्तुत है सर्वार्थसिद्धि के वे अंश या पंक्तियाँ जिन्हें आ० अकलंकदेव ने जहाँ की तहाँ अथवा किञ्चित् परिवर्तन के साथ उद्धृत कर लिया है-- सर्वप्रथम मंगलाचरण को ही लें। आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम मंगल श्लोक "मोक्षमार्गस्य नेतारं......"इत्यादि को मात्र उद्धृत किया है किन्तु उसकी व्याख्या या टीका न करके इस मंगल श्लोक के बाद सीधे ही प्रथम सूत्र की एक सुन्दर उत्थानिका द्वारा मोक्ष और मोक्षमार्ग का निरूपण किया है, जबकि आचार्य अकलंकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक में "मोक्षमार्गस्य नेतारं......” इत्यादि मंगत श्लोक का उल्लेख तक न करके सीधे अपनी ओर से इस वार्तिक ग्रन्थ के शुभारम्भ में अलग से मंगलाचरण इस प्रकार किया है १. वही, पृष्ठ २
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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