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आचार्य पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धि और आचार्य
आगमिक ग्रंथ राजवार्तिक लिखकर दिगम्बर साहित्य में एक प्रकार से विशेषावश्ययक के-स्थान की पूर्ति की है। उन्होंने अपनी विशाल और अनुपम कृति राजवार्तिक संस्कृत में लिखी है जो विशेषावश्यक भाष्य की तरह तर्कशैली की होकर भी आगमिक ही है । उनकी दृष्टि में बौद्ध और ब्राह्मण प्रमाणशास्त्रों की कक्षा में खड़ा रह सके ऐसा न्याय प्रमाण की समग्र व्यवस्था वाला कोई जैन प्रमाण-ग्रन्थ आवश्यक था क्योंकि वे आ० जिनभद्र आदि अन्य आचार्यों की तरह पाँच ज्ञान, नय आदि आगमिक वस्तुओं की केवल तार्किक चर्चा करके ही चुप नहीं रहना चाहते थे, अतः उन्होंने पञ्चज्ञान, सप्तम आदि आगमिक वस्तु का न्याय और प्रमाणशास्त्ररूप से ऐसा विभाजन किया, ऐसा लक्षण प्रणयन किया, जिससे जैन न्याय और प्रमाण ग्रन्थों के स्वतन्त्र प्रकरणों की मांग पूरी हुई। उनके सामने वस्तु तो आगमिक थी ही, दृष्टि और तर्क का मार्ग भी आ० सिद्धसेन और समन्तभद्र के द्वारा परिष्कृत हुआ ही था फिर भी प्रबल दर्शनान्तरों के विकसित विचारों के साथ प्राचीन जैन निरूपण का तार्किक शैली में मेल बिठाने का काम जैसा तैसा न था जो कि अकलंक ने किया । यही सबब है कि अकलंक की मौलिक कृतियाँ बहुत ही संक्षिप्त हैं, फिर भी वे इतनी अर्थघन तथा सुविचारित हैं कि आगे के जैनन्याय का वे आधार बन गई है।""
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“आ० अकलंकदेव का तत्त्वार्थवार्तिक गुण और विस्तार की दृष्टि से ऐसा है 'जिसे कोई भाष्य ही नहीं, महाभाष्य भी कह सकता है" ।
. आचार्य अकलंकदेव स्वामी समन्तभद्र की तरह पूज्यपादाचार्य के भी सिद्धान्तों के उपस्थापक, समर्थक, विवेचक और प्रसारक हैं । श्वेताम्बर मुनि जिनविजयजी ने लिखा है कि “आ० अकलंकदेव ने जैसे समन्तभद्रोपज्ञ आर्हत मत प्रकर्षक पदार्थों का परिस्फोट और विकास किया है वैसे ही पुरातन सिद्धान्त प्रतिपादित जैन पदार्थों का भी नई प्रमाण परिभाषा और तर्कपद्धति से, अर्थोद्घाटन और विचारोद्बोधन किया ।”३ मुनिजीने आगे लिखा है कि “जो कार्य श्वेताम्बर सम्प्रदाय में जिनम्मद्रगाणी मल्लवादी, गन्धहस्ति और हरिभद्रसूरि ने किया वही कार्य दिगम्बर सम्प्रदाय में अनेक अंशों में अकेले भट्ट अकलंकदेव ने किया और वह भी कहीं अधिक सुंदर और उत्तम रूप से किया। अतएव इस दृष्टि से भट्ट अकलंकदेव जैन वाङ्मयाकाश के यथार्थ ही एक बहुत तेजस्वी नक्षत्र थे। उन्होंने 'अकलंक ग्रन्थत्रय' के प्रास्ताविक में आगे लिखा है कि
१. पं० सुखलाल संघवी, अकलंक ग्रन्थत्रय, प्रस्तावना पृष्ठ ६-१०
२. वही, पृष्ठ ११
३. अकलंक ग्रन्थत्रय, प्रास्ताविक, पृ०२
४. वही, पृष्ठ २