SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 158 जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान ' अर्थात् भट्ट अकलंक, श्रीपाल और पात्रकेसरी आदि आचार्यों के अत्यन्त निर्मल गुण विद्वानों के हृदय में मणिमाला के समान सुशोभित होते हैं। आपके द्वारा लिखित ग्रन्थों में मुख्यतः दो प्रकार के ग्रन्थ हैं- प्रथम स्वतंत्र ग्रन्थइनमें स्वोपज्ञवृत्ति सहित लघीयस्त्रय, २. न्यायविनिश्चय सवृत्ति, ३. सिद्धिविनिश्चय सवृत्ति, तथा ४. प्रमाण संग्रह सवृत्ति। द्वितीय टीका ग्रन्थों में तत्त्वार्थवार्तिक सभाष्य एवं आ० समन्तभद्र प्रणीत देवागम स्तोत्र पर लिखित अष्टशती, जिसे देवागमविवृति भी कहा जाता है। इनमें से सभाष्य तत्त्वार्थवार्तिक टीका तत्त्वार्थसूत्र के प्रत्येक सूत्र पर वार्तिक रूप में गद्यात्मक व्याख्या है। वार्तिकों पर भाष्य भी लिखा है। इसमें वार्तिक अलग. और उनकी व्याख्या-भाष्य अलग होने से इसकी पुष्पिकाओं में इसे “तत्त्वार्थवार्तिक व्याख्यानालंकार" भी कहा है। ज्ञान और द्रव्यों के विवेचन की दृष्टि से इसके प्रथम और पंचम अध्यायों में अनेक दार्शनिक विषयों की समीक्षा की है। ___ डॉ० नेमिचन्द शास्त्री ने लिखा है कि तत्त्वार्थवार्तिक की एक प्रमुख विशेषता यह है कि जितने भी मन्तव्य उसमें चर्चित हुए, उन सबका समाधान अनेकान्त के द्वारा किया गया है। अतः दार्शनिक विषयों से सम्बद्ध सूत्रों के व्याख्यान में अनेकान्तात् वार्तिक' अवश्य पाया जाता है। इसीलिए वार्तिककार ने दार्शनिक विषयों के कथन सन्दर्भ में आगमिक विषयों को भी प्रस्तुत कर अनेकान्तवाद की प्रतिष्ठा की है। जैन सिद्धान्तों के जिज्ञासु इस एक ही ग्रन्थ के स्वाध्याय से अनेक शास्त्रों का रहस्य हृदयंगम कर सकते हैं। इसमें ऐसी भी अनेक चर्चायें प्रस्तुत की गई है तो अन्यत्र अप्राप्य या दुर्लभ हैं। आ० अकलंकदेव को अनेकान्तवाद का महापण्डित माना जाता है। इसीलिए प्रायः सूत्रस्थ विवादों का निराकरण अनेकान्त के आधार पर किया गया है। इतना ही नहीं प्रथम अध्याय के “प्रमाणनयैरधिगमः" सूत्र की व्याख्या में सप्तभंगी का और चतुर्थ अध्याय के अन्तर्गत अनेकान्तवाद का बहुत विस्तार से विवेचन है। तत्त्वार्थवार्तिक में विषय की दृष्टि से सर्वार्थसिद्धि का अच्छा विस्तार किया गया है। इसकी शैली यद्यपि न्याय-प्रचुर है फिर भी अतिप्रसन्न और कहीं कहीं जटिल भी है, इसकी विषय प्रतिपादन की आदर्श शैली का परवर्ती आचार्यों और उनकी रचनाओं पर गम्भीर प्रभाव पड़ा है। इस प्रकार जैन संस्कृति की अपार काल-परम्परा के बीच यह ग्रन्थ दोनों ओर अपनी भुजाओं का प्रसार किये मेरु के समान अचल खड़ा है। तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग २, पृ० ३१४ “अकलंक ने १. महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग २, पृ० ३१४ ।
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy