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आचार्य पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धि और आचार्य ........
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पंचम अध्याय विशेष महत्त्वपूर्ण है। द्रव्य, गुण और पर्यायों का स्पष्ट और पूर्ण विवेचन किया गया है। "द्रव्यत्वयोगाद् द्रव्यम्" और "गुण-समुदायो द्रव्यम्" की समीक्षा सुन्दर रूप में की गयी है। “उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्” (५/३०), सूत्र की व्याख्या में सोदाहरण उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की व्याख्या की गयी है तथा “अर्पितानर्पितसिद्धेः" (५/३२) सूत्र की वृत्ति में अनेकान्तात्मक वस्तु की सिद्धि की गई है।
इस तरह यह ग्रन्थ वर्णनात्मक शैली का होते हुए भी सूत्रगत पदों की सार्थकता के निरूपण के कारण भाष्य के तुल्य है।
_ 'सर्वार्थसिद्धि' इस नाम से ही यह सिद्ध होता है कि इसके मनन करने से सब प्रकार के अर्थों की अथवा सब अर्थों में श्रेष्ठ मोक्ष की प्राप्ति होती है आचार्य पूज्यपाद एक प्रसिद्ध वैयाकरण थे, इनकी सर्वार्थसिद्धि नामक टीका एक तत्त्वविवेचन प्रधान दार्शनिक ग्रन्थ है, फिर भी. इसकी इतनी सरल और प्रांजल भाषा है कि इसकी रचना शैली को हम समतल नदी के गतिशील प्रवाह की उपमा दे सकते हैं जो स्थिर और प्रशान्त भाव से आगे एक रूप में सदा बढ़ती रहती है। रुकना कही वह जानती ही नहीं। आचार्य पूज्यपाद ने इसमें केवल भाषा-सौष्ठव का ही ध्यान नहीं रखा है, अपितु आगमिक परम्परा का भी पूरी तरह निर्वाह किया है। प्रथम अध्याय का सातवाँ और आठवाँ सूत्र इसका प्राञ्जल उदाहरण है। इन सूत्रों की व्याख्या का आलोडन करते समय उन्होंने सिद्धान्त ग्रन्थों का कितना गहरा अभ्यास किया था इस बात का सहज ही पता लग जाता है
आचार्य अकलंक देव और उनका तत्त्वार्थवार्तिक : .. जैनदर्शन के प्रखरतार्किक, दार्शनिक और जैनन्याय के प्रस्थापक आचार्य
अकलंकदेव सातवीं शती (उत्तरार्द्ध) के एक महान् आचार्य थे। ये मान्यखेट राजा के मंत्री पुरुषोत्तम के पुत्र थे। अनेक परवर्ती आचार्यों ने अपनी कृतियों में आपकी प्रशंसा लिखी है। धनंजय ने अपनी नाममाला में जैन प्रमाणशास्त्र को आपकी विशेष देन का उल्लेख करते हुए लिखा है
प्रमाणमकलंकस्य पूज्यपादस्य लक्षणम्।
धनञ्जयकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् ।। अर्थात् अकलंकदेव का प्रमाण, पूज्यपाद का व्याकरण और धनंजय कवि का काव्य- ये तीनों अपश्चिम रत्न हैं। आदिपुराणकार आ० जिनसेन ने भी कहा है
भट्टाकलंकश्रीपालपात्रकेसरिणां गुणाः। विदुषां हृदयारूढा हारायन्तेऽतिनिर्मलाः ।। आदिपुराण १/५३