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________________ आचार्य पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धि और आचार्य 161 प्रणम्य सर्वविज्ञानमहास्पदमुरुश्रियम् । निर्धूतकल्मषं वीरं वक्ष्ये तत्त्वार्थवार्तिकम् ।। ___ इस आधार पर कुछ विद्वानों का मत है कि 'मोक्षमार्गस्य नेतारं...' इत्यादि मंगलाचरण मूल ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र में नहीं रहा होगा, इसीलिए आ० पूज्यपाद और आ० अकलंक जैसे महान् आचार्यों ने इसका व्याख्यान एवं उल्लेख नहीं किया, किन्तु डॉ० दरबारीलाल कोठिया आदि अनेक विद्वानों ने विविध प्रमाणों से इसे मूल ग्रन्थ का मंगलश्लोक होना सिद्ध किया है। ___ इसके बाद प्रथमसूत्र “सम्यग्दर्शन ज्ञान चारिमाणि मोक्षमार्गः” को ही लें। सर्वार्थसिद्धि में इसकी वृत्ति में सम्यग्ज्ञान की परिभाषा संक्षेप में कही है कि “येन येन प्रकारेण जीवादयः पदार्थाः व्यवस्थितास्तेन तेनावगमः सम्यग्ज्ञानम्"। इसे ही आ० अकलंकदेव ने कुछ बढ़ाकर इस प्रकार लिखा है “येन येन प्रकारेण जीवादयः पदार्था अवस्थिताः तेन तेनावगमः जीवाद्यर्थयाथात्म्यावगमः सम्यग्ज्ञानम्।" आगे सर्वार्थसिद्धि के वृत्ति वाक्य, जिनमें सम्यक्चारित्र की परिभाषा की गई है, उसे किञ्चित् परिवर्तन के साथ आ० अकलंकदेव ने वार्त्तिक सं०३ के रूप में प्रस्तुत कर दिया आगे अनेक विषयों का वार्तिक सहित विस्तार करने के बाद पुनः सर्वार्थसिद्धि के अनुच्छेद सं०७ में उल्लिखित वाक्य “ज्ञानग्रहणमादौ न्याय्यं, दर्शनस्य तत्पूर्वकत्वात् अल्पान्तरत्वाच्च” के दो वार्तिक (सं० २८ एवं २६ के रूप में) प्रस्तुत करके इनका भाष्य लिखा। . . इसके बाद आ० पूज्यपाद ने जहाँ संबंधित विषय का अन्य प्रतिपादन करके प्रथम सूत्र का विवेचन समाप्त कर दिया वहीं आ० अकलंकदेव ने इसी विवेचन के आधार पर पचहत्तर वार्तिक और इनके विस्तृत भाष्य के बाद प्रथम सूत्र का विवेचन और द्वितीय आह्निक की समाप्ति की। ... प्रथम अध्याय के ही द्वितीय सूत्र 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' का आ० पूज्यपाद ने छोटे-छोटे तीन अनुच्छेदों में विवेचन किया, वहीं इसी के आधार पर आ० अकलंकदेव ने इकतीस वार्तिकों और इसके भाष्य के साथ विवेचन प्रस्तुत किया। इतना ही नहीं अपितु सर्वार्थसिद्धि के कई वाक्यों को वार्तिक रूप में भी आ० अकलंकदेव ने प्रस्तुत किया। यथा- आचार्य पूज्यपाद ने शंका प्रस्तुत की "दृशेरालोकार्थत्वात् श्रद्धानार्थगतिर्नोपपद्यते? अर्थात् सम्यग्दर्शन में “दर्शन" शब्द 'दृशि' धातु से बना है, • जिसका अर्थ है “आलोक" अतः इससे श्रद्धानरूप अर्थ का ज्ञान नहीं हो सकता है। समाधान में आगे आचार्य पूज्यपाद ने कहा 'धातुओं के अनेक अर्थ होते हैं अतः "दृशि" धातु का “श्रद्धान” रूप अर्थ करने में कोई दोष नहीं है।
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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