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जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
के निमित्त उपस्थित किये जाने पर भी अभिमान नहीं होना मार्दव है। निरभिमानी
और मार्दवगुण युक्त व्यक्ति पर गुरुओं का अनुग्रह होता है। साधुजन भी उसे साधु मानते हैं। ....अहंकार समस्त विपदाओं की जड़ है अतः मार्दव भाव रखना चाहिए। मार्दव से मनुष्यायु का आस्रव होता है।
(१३) विनय- समस्त सम्पदायें विनयमूलक हैं; यह पुरुष का भूषण है। यह संसार समुद्र से पार उतारने के लिए नौका के समान है। इसके. चार भेद हैं“ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः" अर्थात् ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय और उपचार विनय। ज्ञानलाभ, आचार विशुद्धि और सम्यक् अराधना आदि की सिद्धि विनय से होती है और अन्त में मोक्षसुख भी इसी से मिलता है, अतः विनयभाव अवश्य ही. रखना चाहिए। विनय से सातावेदनीय एवं मनुष्यायु का आस्रव होता है। ....
(१४) आर्जव- मन, वचन और काय में कुटिलता न होना आर्जव अर्थात् सरलता है। सरल हृदय गुणों का आवास है।.... मायाचारी की निन्द्य गति होती है। साधुओं के विषय में कहते हैं कि अपने मन में दोषों को अधिक समय तक न रखकर निष्कपट वृत्ति से बालक की तरह सरलतापूर्वक दोष निवेदन करने में न तो ये दोष होते हैं और न अन्य ही।" आर्जव को सातावेदनीय और मनुष्यायु का आनव माना गया है।
(१५) सत्य- सत् जनों से साधुवचन बोलना संत्य है। सभी गुण-सम्पदायें सत्य वक्ता में प्रतिष्ठित होती हैं। झूठे का बंधुजन भी तिरस्कार करते हैं। उसके कोई मित्र नहीं रहते। जिहाछेदन, सर्वस्वहरण आदि दण्ड उसे भुगतने पड़ते हैं। सत्यवादिता १. वही, ६/६/३ २. वही, ६/६/२७ ३. वही, ६/१७ ४. वही, ६/६/१६ ५. वही, ६/२३/१-७ ६. तत्त्वार्थवार्तिक, ६/२३/७ ७. वही, ६/१२/१३ ८. वही, ६/१७ ९. वही, ६/६/४ १०. वही, ६/६/२७ ११. वही, ६/२२/२ १२. वही, ६/१२/१३ १३. वही, ६/१७ १४. वही, ६/६/९-१० १५. वही, ६/६/२७