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'तत्त्वार्थवार्तिक' में प्रतिपादित मानवीय मूल्य
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पीत. लेश्या का लक्षण है।' सत्य, हित, मित, बोलना शुभ वाग्योग है। जो वचन पीड़ाकारी हैं वे भी अनृत हैं। मिथ्याभाषी का कोई विश्वास नहीं करता। वह यहीं जिह्मभेद आदि दण्ड भुगतता है। जिनके सम्बन्ध में झूठ बोलता है, वे उसके वैरी हो जाते हैं, अतः उनसे भी अनेक आपत्तियां आती हैं, अतः असत्य बोलने से विरक्त होना कल्याणकारी है।
(१६) शौच- आत्यन्तिक लोभ की निवृत्ति को शौच कहते हैं। शुचि का भाव या कर्म शौच है। जो पूर्ण मनोनिग्रह में असमर्थ हैं, उन्हें पर वस्तुओं सम्बन्धी अनिष्ट विचारों की शान्ति के लिए शौचधर्म का उपदेश है। यह लोभ की निवृत्ति के लिये है।' शुचि आचार वाले निर्लोभी व्यक्ति का इस लोक में सम्मान होता है। विश्वास आदि गुण उसमें रहते हैं। लोभी के हृदय में गुण नहीं रहते। वह इस लोक और परलोक में अनेक आपत्तियों और दुर्गति को प्राप्त होता है। - (१७) दान- अनुग्रह के लिए धन का त्याग दान है- “अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गो दानम्।” भट्ट अकलंकदेव के अनुसार- “स्वस्य परानुग्रहबुद्धया अतिसर्जनं दानम्" अर्थात् अपनी वस्तु का पर के अनुग्रह के लिए पूर्ण रूपेण त्याग करना दान है। पर की प्रीति के लिए अपनी वस्तु को देना त्याग है। आहार देने से पात्र को उस दिन प्रीति होती है। अभयदान से उस भव का दुःख छूटता है, अतः पात्र को सन्तोष होता है। ज्ञानदान तो अनेक सहस्रभावों के दुःख से छुटकारा दिलाने वाला है; ये तीनों विधिपूर्वक दिये गये त्याग कहलाते हैं। किसी से विसंवाद न करना दाता की विशेषता है। दानशीलता मनुष्यायु का आसव है।"
(१८) सन्तोष-जैसे, पानी से समुद्र का बड़वानल शान्त नहीं होता, उसी तरह परिग्रह से आशा-समुद्र की तृप्ति नहीं हो सकती। यह आशा का गड्ढा दृष्पूर है,
... वही, ०४/२२/१०
२. वही, ६/३/२ ३. वही, ७/१४/५ ४. वही, ७/९/२ ५. तत्तवार्थवार्तिक, ६/६/५-८ ६. वही, ६/६/२७ .७. तत्तवार्थसूत्र, ७/३८
८. तत्तवार्थवार्तिक, ६/१२/४ .६..वही, ६/२४/६
१०. वही, ७/३६/४ ११. वही, ६/१७