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________________ 'तत्त्वार्थवार्तिक' में प्रतिपादित मानवीय मूल्य 149 तपस्वीजनों की वैयावृत्त्य को सातावेदनीय का आम्नव माना गया है।' . (१०) अहिंसा-२ अहिंसा सभी व्रतों में प्रधान है। प्राणों के वियोग करने से प्राणी की हिंसा होती है। प्राण-वियोग होने पर आत्मा को ही दुःख होता है, अतः हिंसा है और अधर्म है। धर्म के नाम पर हिंसा उचित नहीं है। प्राचीनकाल में धर्म के नाम पर हिंसा होती थी; ऐसी हिंसा का प्रतिपादन करने वाले बादरायण, वसु, जैमिनी आदि को भट्ट अकलंकदेव ने अज्ञानी कहा है। प्राणिवध तो पाप का ही साधन हो सकता है, धर्म का नहीं। आगम की दृष्टि से भी यह उचित नहीं, क्योंकि आगम समस्त प्राणियों के हित का अनुशासन करता है। हिंसक नित्य उद्विग्न रहता है, सतत उसके वैरी रहते हैं, यहीं वह बंध क्लेश को पाता है और मरकर अशुभगति में जाता है, लोक में निन्दनीय होता है, अतः हिंसा से विरक्त होना कल्याणकारी है। हिंसा विरक्ति में मनुष्यायु का आम्नव होता है। प्राणिरक्षा को संयम भी माना है, अतः अहिंसा आचरणीय है। (११) क्षमा- शरीर यात्रा के लिए पर घर जाते समय भिक्षु का दुष्टजनों के द्वारा गाली, हँसी, अवज्ञा, ताड़न, शरीर-छेदन आदि क्रोध के असह्य निमित्त मिलने पर भी कलुषता का न होना उत्तम क्षमा हैं, व्रत, शील का रक्षण, इहलोक और परलोक में दुःख का न होना और समस्त जगत् में सम्मान, सत्कार होना आदि क्षमा के गुण हैं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का नाश करना आदि क्रोध के दोष हैं; यह विचारकर क्षमा धारण करना चाहिए। क्षमा को पद्मलेश्या का लक्षण माना गया है।" .: (१२) मार्दव- “मृदोर्भावः कर्म वा मार्दवम्, स्वभावेन मार्द्रवं स्वभावमार्दवं"१२ अर्थात् स्वाभाविक मृदु स्वभाव मार्दव है। उत्तम जाति, कुल, रूप, विज्ञान, ऐश्वर्य, श्रुतलाभ और शक्ति से युक्त होकर भी इनका मद नहीं करना, दूसरों के द्वारा पराभव १. · वही, ६/१२/१३ २.. वही, ६/३/१२ ३. · वही, ७/१/६ ४. वही, ७/१३/६-११ ५. वही, ८/१/१३-१४ ६. वही, ७/६/२ ७. वही, ६/१७ ८. वही, ६/१२/६ ६. तत्त्वार्थवार्तिक, ६/६/२ १०. वही, ६/६/२७ ११. वही, ४/२२/१० १२. वही, ६/१८/१
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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