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जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
अनुकम्पा है। यह सराग सम्यग्दृष्टि का गुण माना गया है। दयाई व्यक्ति का दूसरे की पीड़ा को अपनी ही पीड़ा समझकर काँप जाना अनुकम्पा है। इसके दो भेद हैं एक भूतानुकम्पा और दूसरा व्रती अनुकम्पा।' इस विषय में 'अज्ञेय' का मत है कि अनुकम्पा की भावना रखने से व्यक्ति दूसरों को दुख देने से बचता है
दर्द सबको माँजता है
और, जिन्हें वह माँजता है उन्हें यह सीख देता है .... कि सबको मुक्त रखें।
(६) करुणा- “दीनानुग्रहभावः कारुण्यम्” अर्थात् दीनों पर दयाभाव रखना कारुण्य है। शरीर और मानस दुःखों से पीड़ित दीन प्राणियों के ऊपर अनुग्रह रूप भाव कारुण्य है। मोहाभिभूत, कुमति, कुश्रुत और विभंग ज्ञान युक्त विषय तृष्णा से जलने वाले हिताहित में विपरीत प्रवृत्ति करने वाले, विविध दुःखों से पीड़ित दीन, अनाथ, कृपण, बाल-वृद्ध आदि क्लिश्यमान जीवों में करुणाभाव रखना चाहिए। ..
(७) माध्यस्थ- “रागद्वेषपूर्वकपक्षपाताभावो माध्यस्थम्” अर्थात् राग-द्वेष पूर्वक पक्षपात न करना माध्यस्थ है। राग-द्वेषपूर्वक किसी एक पक्ष में न पड़ने के भाव को माध्यस्थ या तटस्थभाव कहते हैं। ग्रहण, धारण, विज्ञान और ऊहापोह से रहित महामोहाभिभूत विपरीत दृष्टि और विरुद्धवृत्ति वाले प्राणियों में माध्यस्थ की भावना रखनी चाहिए।
(1) वात्सल्य- जिनप्रणीत धर्मामृत से नित्य अनुराग करना वात्सल्य है"जिनप्रणीतधर्मामृते नित्यानुरागता वात्सल्यम्।" जैसे गाय अपने बछड़े से अकृत्रिम स्नेह करती है उसी तरह धार्मिक जन को देखकर स्नेह से ओतप्रोत हो जाना प्रवचन वात्सल्य है। जो धार्मिकों में स्नेह है, वही तो प्रवचन स्नेह है।
(E) वैयावृत्त्य- गुणवान्, साधुओं पर आये हुए कष्ट-रोग आदि को निर्दोष विधि से हटा देना, उनकी सेवा आदि करना बहुउपकारी वैयावृत्त्य है। बाल, वृद्ध और १. वही, ७/१२/३ २. वही, ७/११/३ - ३. वही, ७/११/५-६ ४. सर्वार्थसिद्धि, ७/११/६८३ ५. तत्त्वार्थवार्तिक, ७/११/१-४ ६. वही, ७/११/५-७ ७. तत्त्वार्थवार्तिक, ६/२४/१ ८. वही, ६/२४/१३ #. वही E/२४/