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जैन- न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
मानववादी भी व्यक्ति स्वातंत्र्य की बात करते हैं, किन्तु वहाँ भी यही प्रश्न उठता है कि किसका स्वातंत्र्य? तो एक ही उत्तर मिलता है आत्म - स्वातंत्र्य । 'तत्त्वार्थवार्तिक' में मंगलाचरण की टीका में श्री भट्ट अकलंकदेव स्वयं लिखते हैं
“संसारिणः पुरुषस्य सर्वेष्वर्थेषु मोक्षः प्रधानम् प्रधाने च कृतो यत्नः फलवान् भवति' तस्मान्तन्मार्गोपदेशः कार्यः तदर्थत्वात् ” अर्थात् संसारी आत्मा के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में मोक्ष अन्तिम और प्रधानभूत पुरुषार्थ है। अतः उसकी प्राप्ति के लिए मोक्षमार्ग का उपदेश करना चाहिए किन्तु यह बिना मनुष्य को आधार बनाये संभव नहीं है क्योंकि 'मनुष्यपर्याय से ही मोक्ष लाभ होता है'“मनुष्यदेहस्य चरमत्वम् । ”३
मनुष्य की इस शक्ति को जैनदर्शन ही नहीं बल्कि अन्य दर्शन भी स्वीकार. करते हैं । 'महाभारत' में व्यास जी लिखते हैं कि
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“गुह्यं ब्रह्म तदिदं वो ब्रमोमि, नहि मानुषात् श्रेष्ठतमं हि किंचित्” अर्थात्- मैं तुम्हें ब्रह्म का रहस्य कहता हूँ, मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है।
ब्रह्मपुराण के अनुसार- “जो मनुष्य कर सकता है वह सुरासुर भी नहीं कर सकते।”
सांख्य-वृत्ति के अनुसार सृष्टि के षड्विध भेदों में मनुष्य उत्तम है- “देवादि षड्विधाय स्यात् संसारः कर्म, सुराऽसुरो नरः प्रेतो नारकंस्तिरयर्कस्तता ।”
आचार्य अकलंकदेव की दृष्टि में “धर्मार्थकाममोक्षलक्षणानि कार्याणि नृणन्ति नयन्तीति नरा: "" अर्थात् धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप चार पुरुषार्थों का नयन करने वाले ‘नर' होते हैं, शक्ति की दृष्टि से “मनुष्य अपने में स्वतः सार्थक और मूल्यवान् है- वह आन्तरिक शक्तियों से सम्पन्न, चेतन स्तर पर अपनी नियति के निर्माण के लिए स्वतः निर्णय लेने वाला प्राणी है ।"" श्री सुमित्रानन्दन 'पंत' की दृष्टि में“धर्मनीति औ सदाचार का, मूल्यांकन है जनहित।।”
अतः मनुष्य में ही मानवोचित गुणों का विकास किया जाना अपेक्षित है। इसी विचारधारा के परिप्रेक्ष्य में ‘मानववाद' उभरकर सामने आया जो पारलौकिक मूल्यों के
१. वही, १/३ ( मंगलाचरण)
२ . वही, १/२६, उत्थानिका, वार्तिक- ३
३. वही, ४ / २६ / ३
४. तत्तवार्थवार्तिक, २/५०/१
५. मानवमूल्य और साहित्यः धर्मवीर भारती, भूमिका - १