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'तत्त्वार्थवार्तिक' में प्रतिपादित मानवीय मूल्य
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स्थान पर इहलौकिक मूल्यों को स्थान देने लगा। 'पंत' जी 'लोकायतन' में घोषित करते हैं
मानव दिव्य स्फुलिंग चिरन्तन, वह न देश का नश्वर रजकण। देशकाल से उसे न बन्धन,
मानव का परिचय मानवपन।। 'पंचवटी' में गुप्त जी के स्वर भी यही थे
भव में नव वैभव प्राप्त कराने आया। . नर की ईश्वरता प्राप्त कराने आया।
सन्देश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया।
इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया।। . 'वाल्टर लिपमान' ने मानव की बुद्धि, विवेक एवं श्रम द्वारा उत्तम जीवन की खोज को मानववाद कहा।
__ 'मानववाद' का विश्लेषण करते हुए डॉ० धर्मवीर भारती ने लिखा है कि. - "मानववाद के उदयकाल में ईश्वर जैसी किसी मानवोपरि सत्ता या उसके प्रतिनिधि धर्माचार्यों को नैतिक मूल्यों का अधिनायकं न मानकर मनुष्य को ही इन मूल्यों का विधायक मानने की प्रवृत्ति विकसित होने लगी थी। इसे मानवीय गौरव का नाम दिया जाने लगा। “मानवीय गौरव का अर्थ है कि मनुष्य को स्वतंत्र, सचेत, दायित्वयुक्त माना जाय, जो अपनी नियति, अपने इतिहास का निर्माता हो सकता है। इसके लिए उसके विवेक और मनोबल को सर्वोपरि और अपराजेय माना जाय।"२ मानवीय गरिमा के प्रति सभी अस्तित्ववादी चिन्तक एवं रचनाकार पूरी तरह सजग हैं। डॉ० भारती अंतरात्मा की पहचान मनुष्य की संवदेनशीलता से मानते हैं, वे लिखते हैं कि“अंतरात्मा मानवीयं अन्तर में स्थित कोई दैवी या अति प्राकृतिक शक्ति न होकर वस्तुतः मानवीय गरिमा के प्रति हमारी संवेदनशीलता का ही दूसरा रूप है और मनुष्य के गौरव को प्रतिष्ठित करने और उसकी निरन्तर रक्षा करने के प्रति हमारी जागरूकता ही हमारी जाग्रत अंतरात्मा का प्रमाण है।"
१. मानवमूल्य और साहित्यः पेज-४ २. वही, पेज-२१ ३. हिन्दी कविता, संवेदना और दृष्टि, पेज ४५ ४. मानवमूल्य और साहित्यः पृ०-२१