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________________ 142 जैन - न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान कोई विरोध नहीं है। अद्वैतवाद समीक्षा - जो (अद्वैतवादी) द्रव्य को तो मानते हैं, किन्तु रूपादि को नहीं मानते, उनका यह कहना विपरीत है । यदि द्रव्य ही हो, रूपादि नहीं हो तो द्रव्य का परिचायक लक्षण न रहने से लक्ष्यभूत द्रव्य का ही अभाव हो जायेगा। इन्द्रियों द्वारा सन्निकृष्यमाण रूपादि के अभाव में सर्व आत्मा ( अखणु रूप से ) ग्रहण का प्रसंग आएगा और पाँच इन्द्रियों के अभाव का प्रसंग आएगा; क्योंकि द्रव्य तो किसी एक भी इन्द्रिय से पूर्ण रूप से गृहीत हो ही जायेगा । परन्तु ऐसा मानना न तो इष्ट है और न प्रमाण प्रसिद्ध ही है अथवा जिनका मत है कि रूपादि गुण ही हैं, द्रव्य नहीं हैं। उनके मत में निराधार होने से रूपादि गुणों का अभाव हो जाएगा।' आगमिक वैशिष्ट्य- तत्त्वार्थसूत्र में आगमिक मान्यताओं को निबद्ध किया गया है। टीकाकारों ने इन सूत्रों की व्याख्या युक्ति और शास्त्र के आधार पर की है। अकलंकदेव का तत्त्वार्थवार्तिक भी इसका अपवाद नहीं है। प्रथम अध्याय के ७ वें सूत्र :. की व्याख्या में निर्देश, स्वामित्व आदि की योजना की गयी है। प्रथम अध्याय के २० सूत्र की व्याख्या में द्वादशांग के विषयों का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। आगम में ३६३ मिथ्यामत बतलाए गए हैं । तत्त्वार्थवार्तिक के ८ वें अध्याय के प्रथम सूत्र की व्याख्या में ३६३ मतों का प्रतिपादन है । वें व्याकरणात्मक वैशिष्ट्य- अकलंकदेव व्याकरणशास्त्र के महान् विद्वान् थे । पाणिनि-व्याकरण और जैनेन्द्र-व्याकरण का उन्होंने भली-भाँति पारायण किया था । व्युत्पत्ति और कोश ग्रन्थों का उनका अच्छा अध्ययन था । तत्त्वार्थवार्त्तिक में स्थान-स्थान पर सूत्रों एवं उनमें आगत शब्दों का जब वे व्याकरण की दृष्टि से औचित्य सिद्ध करते हैं, तब ऐसा लगता है, जैसे वे शब्दशास्त्र लिख रहे हों। इस प्रकार के सैकड़ों स्थल प्रमाण रूप में उद्धृत किए जा सकते हैं। सम्प्रति अग्रांकित एक उदाहरण द्रष्टव्य है जैसे ज्ञानवान् में मतुप् प्रत्यय प्रशंसा अर्थ में है, क्योंकि ज्ञानरहिल कोई आत्मा नहीं है। - कहा जाता है कि यह रूपवान् है । रूप में मतुप् प्रत्यय प्रशंसा अर्थ में है, क्योंकि रूपरहित कोई पुद्गल नहीं है । इस प्रकार यह सहज ही कहा जा सकता है कि आचार्य अकलंकदेव का तत्त्वार्थ वार्तिक विविध विधाओं, दर्शनों और औचित्यपूर्ण तर्कों का गहन सागर है । १. वही १/३२/३ २. वही १/१/३
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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