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आO अकलंकदेवकृत तत्त्वार्थवार्तिक के कतिपय वैशिष्ट्य
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प्रमाण नहीं हो सकते हैं।' इस तरह वेदवाक्य की प्रमाणता का तत्त्वार्थवात्तिक में विस्तृत खण्डन किया गया है।
बौद्धदर्शन समीक्षा- अन्य दर्शनों की समीक्षा करते हुए अकलंकदेव ने यद्यपि प्रायः बौद्ध, न्याय वैशेषिक और सांख्य को दृष्टि में रखा है, किन्तु इनमें भी बौद्ध मन्तव्यों की उन्होंने जगह जगह आलोचना की है। इसका कारण यह है कि उनके समय में बौद्धधर्म जैनधर्म का प्रबल विरोधी धर्म था। बौद्धधर्म का मर्मस्पर्शी अध्ययन करने हेतु अकलंकदेव को बौद्धमठ में रहना पड़ा था। इस हेतु उन्हें अनेक कष्टों का सामना भी करना पड़ा, किन्तु वे दुःखों के बीच रहकर भी घबराए नहीं और बौद्ध-शास्त्रों का अध्ययन कर उन्होंने जगह-जगह उनसे शास्त्रार्थ कर जैनदर्शन की विजय-दुन्दुभी बजायी। उनकी तर्कपूर्ण प्रतिभा को देखते हुए उन्हे अकलंकब्रह्म कहा जाने लगा। तत्त्वार्थवार्त्तिक के कतिपय स्थल हम उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते हैं। उससे उनकी बौद्धविद्या में गहरी पैठ की जानकारी प्राप्त होती है।
प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र की व्याख्या में कहा गया है कि यद्यपि बौद्ध रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान-इन पाँच स्कन्धों के निषेध से आत्मा के अभावरूप मोक्ष के अन्यथालक्षण की कल्पना करते हैं तथापि कर्म-बन्धन के विनाश रूप मोक्ष के सामान्य लक्षण में किसी भी वादी को विवाद नहीं है। बौद्ध कहते हैं कि अविद्या प्रत्यय. संस्कार के अभाव से मोक्ष होता है', जैनों का कहना है कि संस्कारों का क्षय ज्ञान से होता है कि किसी कारण से? यदि ज्ञान से संस्कारों का क्षय होगा तो ज्ञान होते ही संस्कारों का क्षय भी हो जायेगा और शीघ्र मुक्ति हो जाने से प्रवचयेपदेश का अभाव होगा। यदि संस्कार क्षय के लिए अन्य कारण अपेक्षित हैं तो चारित्र के सिवाय दूसरा कौन सा कारण है? यदि संस्कारों का क्षय चारित्र से होता है तो ज्ञान से मोक्ष होता है, इस प्रतिज्ञा की हानि होगी। ___ पाँचवें अध्याय के नौवें सूत्र की व्याख्या में कहा गया है कि बौद्ध लोकधातुओं को अनन्त मानते हैं। अतः आकाश के प्रदेशों को जैनों द्वारा अनन्त माने जाने से
१. वही ८/१/१२-१४ २. वही ८/१/१५-२७ ३: अन्ये अन्यथालक्षणं मोक्षं परिकल्पयन्ति- रूपवेदनासंज्ञासंस्कारविज्ञानपञ्चस्कन्धनिरोधादभावो मोक्षः इति। तत्त्वार्थवार्तिक . १/१ की उत्थानिका • ४. अविद्याप्रत्ययाः संस्काराः इत्यादिवचनं केषाञ्चित्-वही १/१/४६
५. वही १/१/५२ ६. केचित्तावदाहुः अनन्ता लोकधातवः वही, ५/६/४