________________
140
जैन - न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
आदि नाना कार्य मानता है ।'
वस्तुओं में भिन्न-भिन्न स्वभाव स्वीकार किए जाने में सांख्य का उदाहरण दिया गया है, जहाँ सत्त्व, रज, तम गुणों का प्रकाश, प्रवृत्ति और नियम आदि स्वभाव माना गया है।
योगदर्शन - मोक्ष के कारणों के विषय में विभिन्न वादियों के मत वैभिन्न को दिखलाते हुए योगदर्शन की मान्यता की ओर निर्देश किया गया है, जिसके अनुसार ज्ञान और वैराग्य से मोक्ष होता है । पदार्थों के अवबोध को ज्ञान कहते हैं और विषय सुख की अभिलाषाओं के त्याग अर्थात् पञ्चेन्द्रियजन्य विषयसुखों में अनासक्ति को वैराग्य कहते है ।
वेदसमीक्षा- प्रथम अध्याय के दूसरे सूत्र की व्याख्या में 'पुरुष एवदं सर्वम्' इत्यादि ऋग्वेद के पुरुषसूक्त की पंक्ति उद्धृत करते हुए कहा गया है कि ऋग्वेद में पुरुष ही सर्व है, वही तत्त्व है । उसका श्रद्धान सम्यग्दर्शन है, यह कहना उचित नहीं, हैं क्योकि अद्वैतवाद में क्रिया-कारक आदि समस्त भेद - व्यवहार का लोप हो जाता है।
आठवें अध्याय के प्रथम सूत्र की व्याख्या में बादरायण, वसु, जैमिनी आदि श्रुतविहित क्रियाओं का अनुष्ठान करने वाले को अज्ञानी कहा है, क्योंकि इन्होंने प्राणिबंध को धर्म का साधन माना है । समस्त प्राणियों के हित के अनुशासन में जो प्रवृत्ति करता है, वही आगम हो सकता है, हिंसाविधार्थी वचनों का कथन करने वाले आगम नहीं हो सकते, जैसे- दस्युजनों के वचन' अनवस्थान होने से भी ये आगम नहीं हैं; अर्थात् कहीं हिंसा और कहीं अहिंसा का परस्पर विरोधी कथन इनमें मिलता है। जैसे - पुनर्वसु पहला है, पुष्य पहला है, ये परस्पर विरोधी वचन होने से अनवस्थित एवं अप्रमाण हैं, उसी प्रकार वेद में भी कहीं पर पशुवध को धर्म का हेतु कहा है जैसे-एक स्थान पर लिखा है कि पशुवध से सर्व इष्ट पदार्थ मिलते हैं । यज्ञ विभूति के लिए है, अतः यज्ञ में होने वाला वध अवध है । दूसरी जगह लिखा है कि 'अज' जिनमें अंकुर उत्पन्न होने की शक्ति न हो, ऐसे तीन वर्ष पुराने बीज से पिष्टमय बलिपशु बनाकर यज्ञ करना चाहिए। इस प्रकार हिंसा का खण्डन किया गया है। इस प्रकार ये वचन परस्पर विरोधी हैं, अतः अव्यवस्थित तथा विरोधी होने से वेदवाक्य
१. वही ६/१०/११
२. वही ६/२७/६
३. वही १/१/६
४. वही १ / २ / २४
५. वही ८/१/१३