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आ0 अकलंकदेवकृत तत्त्वार्थवार्तिक के कतिपय वैशिष्ट्य
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धर्म है उनको एक मानने से सड्कक्र दोष आएगा। उसी प्रकार सभी आत्माओं में एक चैतन्यरूपता और आदान-अभोगता समान है, अतः एक ही आत्मा मानना चाहिए, अनन्त नहीं अर्थात् आत्मा भी चैतन्य भोक्तृ आदि समान होने से सर्व आत्माओं में एकत्व का प्रसङ्ग आएगा।'
पाँचवें अध्याय के सत्रहवें सूत्र की व्याख्या में कहा गया है कि जैसे अमूर्त भी प्रधान पुरुषार्थ प्रवृत्ति से महान्, अहंकार आदि विकार रूप से परिणत होकर पुरुष का उपकार करता है, उसी प्रकार अमूर्त धर्म और अधर्म द्रव्य को भी जीव और पुद्गलों की गति और स्थिति में उपकारक समझना चाहिए।
सांख्य का आकाश को प्रधान का विकार मानना ठीक नहीं है क्योंकि आत्मा की तरह प्रधान के भी विकार रूप परिणमन नहीं हो सकता ।
प्रश्न- सत्व, रज और तम-इन तीन गुणों की साम्य अवस्था ही प्रधान है, उस प्रधान में उत्पादन स्वभावता है। उस प्रधान के विकार महान्, अहंकार आदि हैं तथा आकाश भी प्रधान का एक विकार है।
उत्तर- यह कथन भी अयुक्त है; क्योंकि प्रधान परमात्मा के समान नित्य निष्क्रिय, अनन्त आदि अविशेषपने से परमात्मा का आविर्भाव और तिरोभाव नहीं होने से उसमें परिणमन का अभाव है, उसी प्रकार आत्मा के समान अविशेष रूप से नित्य, निष्क्रिय और अनन्त होने से प्रधान के भी विकार का अभाव है और प्रधान के विकार का अभाव होने से प्रधान का विकार आकाश है, इस कल्पना का व्याघात होता है अथवा जैसे प्रधान के विकार घट के अनित्यत्व, मूर्तत्व और असर्वगतत्व है, उसी प्रधान का विकार होने से आकाश के भी अनित्यत्व, अमूर्त्तत्व और असर्वगतत्व होना चाहिए या फिर आकाश की तरह घट के भी नित्यत्व, अमूर्त्तत्व और सर्वगतत्व होना चाहिए; क्योंकि एक कारण से दो परस्पर अत्यन्त विरोधी नहीं हो सकते हैं। - छठे अध्याय के दसवें सूत्र की व्याख्या में कहा गया है कि कारण तुल्य होने से कार्य तुल्य होना चाहिए। इस पक्ष में प्रत्यक्ष और आगम से विरोध आता है। मिट्टी के पिण्ड से घट, घटी, शराव, उदञ्चन (सकोरा) आदि अनेक कार्य होने से उपर्युक्त सिद्धान्त से प्रत्यक्ष विरोध आता है। सांख्य एक प्रधान तुल्य कारण से महान्, अंहकार
.१. वही ५/१७/२३
२. वही ५/१७/४१ ३. वही ५/१८/१
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