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________________ 13 8 जैन - न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान और पुद्गलों की गति और स्थिति में उपकारक समझना चाहिए।' पाँचवें अध्याय के २४वें सूत्र की व्याख्या में स्फोटवादी मीमासंकों के विषय में कहा गया है कि वे मानते है कि ध्वनियाँ क्षणिक हैं । वे क्रम से उत्पन्न होती हैं और अनन्तर क्षण में विनष्ट हो जाती है । अतः इन ध्वनियों से अभिव्यक्त होने वाला अर्थ में प्रतिपादन के समर्थ, अमूर्त, नित्य, अतीन्द्रिय, निरवयव और निष्क्रिय शब्दस्फोट स्वीकार करना चाहिए। उनका यह मत ठीक नहीं है अर्थात् शब्द को क्षणिक, अमूर्त, निरवयव और निष्क्रिय शब्द स्फोट मानना उचित नहीं, क्योंकि ध्वनि और स्फोट में व्यंग्य - व्यक भाव नहीं है । सांख्य दर्शन समीक्षा - प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र की व्याख्या में विभिन्न वादियों की मोक्ष की परिभाषा के साथ सांख्यदर्शन की मान्यता की ओर भी निर्देश किया. गया है। सांख्य यद्यपि प्रकृति और पुरुष का भेदविज्ञान होने पर स्वप्न में लुप्तं हुए विज्ञान के समान अनभिव्यक्त चैतन्यस्वरूप अवस्था को मोक्ष मानता है । यद्यपि कर्मबन्धन के विनाश रूप मोक्ष के सामान्य लक्षणों में किसी को विवाद नहीं है । पंचम अध्याय में आकाश के प्रदेशों की अनन्तता के विषय में आपत्ति होने पर बौद्ध और वैशेषिक द्वारा अनन्त को मान्यता दिये जाने का उल्लेख करते हुये सांख्य सिद्धान्त के विषय में कहा गया है कि इसमें सर्वगत होने से प्रकृति और पुरुष के अनन्तता कही गई है । ' जैनधर्म में धर्म और अधर्म द्रव्य को गति और स्थिति में साधारण कारण माना है। यदि ऐसा न मानकर आकाश को सर्वकार्य करने में समर्थ माना जायेगा तो वैशेषिक, बौद्ध और सांख्य सिद्धान्त से विरोध आएगा। उदाहरणार्थ सांख्य सत्त्व, रज और तम-ये तीन गुण मानते हैं । सत्त्व गुण का प्रसाद और लाघव, रजोगुण का शोष और ताप तथा तमोगुण का आवरण और सादन रूप भिन्न-भिन्न स्वभाव हैं। यदि व्यापित्व होने से आकाश को ही गति एवं स्थिति में उपग्रह ( निमित्त ) मानते हैं तो व्यापित्व होने से सत्त्व को ही शोष तापादि रजोगुण धर्म और सादन आवरण आदि तमोधर्म मान लेना चाहिए। रज, तम गुण मानना निरर्थक है तथा और भी प्रतिपक्षी १. अपूर्वाख्यो धर्मः क्रियया अभिव्यक्तः सन्नमूर्तोडपि पुरुषस्योपकारी वर्तते तथा धर्माधर्मयोरंपि गतिस्थित्युपग्रहो अवसेयः ।। वही ५/७/४१ २. तत्त्वार्थवार्तिक ५ / २४/५ ३. वही १/१/८ ४. वही १/१/८ ५. इतरे ब्रुवते प्रकृतिपुरुषयोरनन्तत्वं सर्वगतत्वादिति । वही ५/६/४
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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