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________________ आज अकलंकदेवकृत तत्त्वार्थवार्तिक के कतिपय वैशिष्ट्य 137 सल्लेखना के सन्दर्भ में कहा गया है कि जो वादी आत्मा को निष्क्रिय कहते है,वे यदि साधुजन सेवित सल्लेखना करने वाले के लिए आत्मवध रूप दूषण देते हैं तो ऐसा करने वाले के आत्मा को निष्क्रिय मानने की प्रतिज्ञा खण्डित हो जाती है। निष्क्रियत्व स्वीकार करने पर आत्मवध की प्राप्ति नहीं हो सकती।' __ दान के प्रसंग में कहा गया है कि आत्मा में नित्यत्व, अज्ञत्व और निष्क्रियत्व मानने पर दान विधि नहीं बन सकती। जिनके सिद्धान्त में सत्स्वरूप आत्मा अकारणभूत होने से कूटस्थ नित्य है और ज्ञानादि गुणों से भिन्न होने से आत्मा अज्ञ है और सर्वगत होने से निष्क्रिय है, उनके भी तिथि-विशेष आदि से फल-विशेष की प्राप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि ऐसी आत्मा में कोई विकार-परिवर्तन की सम्भावना नहीं है। चार्वाक दर्शन समीक्षा-पाँचवें अध्याय के २२वें सूत्र में शरीरादि को पुद्गल का उपकार कहा है। उक्त प्रसंग में कहा गया है 'तन्त्रान्तरीया जीवं परिभाषन्ते तत्कथमिति अर्थात् अन्यवादी जीव को पुद्गल कहते हैं। इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण वाले पुद्गल हैं। - मीमांसा दर्शन समीक्षा-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र-इन तीनों की एकता से मोक्ष होता है। इस सिद्धान्त के प्रतिपादन में प्रसंग में अन्य मतों की समीक्षा के साथ मीमांसा के इस सिद्धान्त की भी समीक्षा की गई है कि क्रिया से ही मोक्ष होता ... प्रथम अध्याय के बारहवें सूत्र की व्याख्या में प्रत्यक्ष में लक्षण के प्रसंग में बौद्ध, वैशेषिक और सांख्य की समीक्षा के साथ मीमांसाकों के इस मत की समीक्षा की गयी है कि इन्द्रियों का सम्प्रयोग होने पर पुरुष के उत्पन्न होने वाली बुद्धि प्रत्यक्ष है। मीमांसकों का यह मत माना जायेगा तो आप्त के प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकता है। .... पांचवें अध्याय के सत्रहवें सूत्र में कहा गया है कि अपूर्व नामक धर्म(पुण्य-पाप) क्रिया से अभिव्यक्त होकर अमूर्त होते हुए भी पुरुष का उपकारी है अर्थात् पुरुष के उपभोग साधनों में निमित्त होता ही है। उसी प्रकार अमूर्त धर्म व अधर्म को भी जीव १. वही ७/२२/१० २. वही ७/३६/६ ३. वही ५/२२/२६ ४. अपर आहुः क्रियात एव मोक्ष इति। तत्त्वार्थवार्त्तिक १/१/५ ५. सत्सम्प्रयोगे पुरुषेन्द्रियाणां बुद्धिजन्मतत्प्रत्यक्षम्, वही १/१२/६ (मीमांसादर्शन १/१२/४) ६. तत्त्वार्थवार्तिक १/१२/५
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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