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जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
वादियों के मतों का कथन करते हुए न्यायदर्शन की मान्यता की ओर संकेत किया है कि वे मानते हैं कि ज्ञान से ही मोक्ष होता है।'
तत्वाज्ञान से सभी के उत्तर(मिथ्याज्ञान) की निर्वृति हो जाने पर उसके अनन्तर अर्थ है उसकी भी निर्वृति हो जाती है। मिथ्याज्ञान के अनन्तर क्या है? दोष है, क्योंकि दोष मिथ्याज्ञान का कार्य है। दोष कार्य होने से दोष के अनन्तर प्रवृत्ति है क्योंकि दोष के अभाव में जन्मरूप कार्य का भी अभाव हो जाता है। जन्म के उत्तर दुःख है इसलिए जन्म के अभाव में दुःख है, इसलिए जन्म के अभाव में दुःख का भी नाश हो जाता है। अतः कारण की निर्वृति होने पर कार्य की निर्वृति होना स्वाभाविक है। आत्यन्तिक दुःख की निर्वृति होना ही मोक्ष है, क्योकि सुख-दुःख का अनुपयोग ही मोक्ष कहलाता
जैनदर्शन के अनुसार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की समग्रता के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है। जैसे- रसायन के ज्ञान मात्र से रसायनंफल, अर्थात् रोग निवृत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि इसमें रसायन-श्रद्धान और रसायन-क्रिया का अभाव है, पूर्णफल की प्राप्ति के लिए रसायन का विश्वास, ज्ञान और उसका सेवन आवश्यक है। उसी प्रकार दर्शन और चारित्र के अभाव में ज्ञानमात्र से मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती।
नैयायिक मानते है कि शब्द आकाश का गुण है वह वायु के अभिघात आदि बाह्य कारणों से उत्पन्न होता है। इन्द्रिय प्रत्यक्ष है, गुण है, अन्य द्रव्यों में नहीं पाया जाता है और निराधार गुण नहीं रह सकते हैं अतः शब्द अपने आधारभूत गुणी आकाश का अनुमान करता है, ऐसा कहना युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि पौद्गलिक होने से शब्द पुद्गल का ही विकार है, आकाश का गुण नहीं है।
पांचवे अध्याय के २५ वें सूत्र की व्याख्या में यह सिद्ध किया गया है कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु-ये स्कन्ध के ही भेद हैं तथा स्पर्श, रस, शब्द आदि स्कन्ध की पर्याय हैं। इसमें नैयायिक के इस सिद्धान्त का खण्डन किया गया है कि पृथ्वी में चार गुण, जल में गन्धरहित तीन गुण, अग्नि में गन्ध व रस रहित दो गुण तथा वायु में केवल स्पर्श गुण है। वे सब पृथिव्यादि जातियां भिन्न-भिन्न हैं।'
१. 'केचित्तावदाहु; ज्ञानादेव मोक्ष इति '-वही १/१/६ २. तत्त्वार्थवार्त्तिक १/१/४५ ३. वही १/१/४६ ४. वही ५/१८/१२ ५. वही ५/२६/१७