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आ० अकलंकदेवकृत तत्त्वार्थवार्तिक के कतिपय वैशिष्ट्य
वैशेषिक मानते हैं कि इच्छा और द्वेष से बन्ध होता है । इच्छा द्वेष - पूर्वक धर्म और अधर्म में प्रवृत्ति होती है। धर्म से सुख और अधर्म से दुःख होता है तथा सुख - दुःख से इच्छा, द्वेष होते हैं। विमोही के इच्छा, द्वेष नहीं होते हैं । कारण यह है कि तत्त्वज्ञ के मिथ्यादर्शन का अभाव होता है। मोह ही अज्ञान है । विमोही षट्पदार्थ तत्त्व के ज्ञाता वैरागी यति के सुख, दुःख, इच्छा और द्वेष का अभाव धर्म, अधर्म के अभाव में नूतन शरीर और मन के संयोग का अभाव होता है । शरीर और मन के संयोग के अभाव में जन्म नहीं होता है, वह मोक्ष है।' इस प्रकार अज्ञान से बन्ध होता है, यह वैशेषिक भी मानता है ।
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अकलंकदेव के अनुसार वस्तु सामांन्य - विशेषात्मक है । इसे वे वैशेषिक में भी घटित करते हैं। वैशेषिक पृथ्वीत्व आदि सामान्य- विशेष स्वीकार करते हैं । एक ही पृथ्वीत्व स्व व्यक्तियों में अनुगत होने से सामान्यात्मक होकर भी जलादि से व्यावृति कराने का कारण होने से विशेष कहलाता है। इस प्रकार एक ही वस्तु में सामान्य-विशेषात्मक स्वीकार करने वाले वैशेषिक सिद्धान्त में भी एक वस्तु के उभयात्मक मानने में विरोध नहीं आता। २.
प्रथम अध्याय के दसवें सूत्र की व्याख्या में ज्ञाता और प्रमाण भिन्न-भिन्न हैं। ऐसा मानने वाले वैशेषिक के अज्ञत्व दोष आता है, इसका विवेचन किया है । यदि ज्ञान से आत्मा पृथक् है तो आत्मा के घट मे समान अज्ञत्व का प्रसंग आएगा। ज्ञान के योग से ज्ञानी होता है यह कहना भी कठिन नहीं, क्योंकि जो स्वयं अज्ञानी है वह ज्ञान के संयोग से ज्ञानी नहीं हो सकता। जैसे- जन्म से अन्धा दीपक का संयोग होने पर भी द्रष्टां नहीं बना सकता, इसी प्रकार अज्ञ आत्मा भी ज्ञान के योग से ज्ञाता नहीं हो सकता है।
प्रथम अध्याय के बत्तीसवें सूत्र की व्याख्या में कहा गया है कि वैशेषिकों का मत है कि प्रतिनियम पृथ्वी आदि जाति विशिष्ट परमाणु से अदृष्टादि हेतु के सन्निधान होने पर एकत्रत होकर अर्थान्तरभूत घटादि कार्यरूप आत्मलाभ होता है, यह कहना युक्तिसंगत नहीं क्योंकि वैशेषिक के अनुसार परमाणु नित्य है अतः उसमें कार्य के उत्पन्न करने की शक्ति का अभाव है । *
इसी प्रकार पांचवें अध्याय के प्रथम सूत्र में मोक्ष के कारणों के विषय में विभिन्न
१. वही १/१/४४
२. वही १/६/१४
३. वही १/१०/८- ६
४. वही १/३२/४