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जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
की गई विभिन्न दर्शनों की समीक्षा प्रस्तुत हैं।
वैशैषिक समीक्षा- तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय में प्रथम सूत्र की व्याख्या में सांख्य, वैशेषिक और बौद्धों के मोक्ष के स्वरूप का वर्णन किया गया है। वैशेषिक आत्मा के बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, और संस्कार रूप इन नव विशेष गुणों के अत्यन्त उच्छेद को मोक्ष कहते हैं। ऐसा मानते हुए भी कर्मबन्धन के विनाश रूप मोक्ष के सामान्य लक्षण में किसी को विवाद नहीं है।'
वैशेषिक के मत से द्रव्य, गुण और सामान्य पदार्थ पृथक्-पृथक् स्वतन्त्रं हैं, इसलिए उनके मत में उष्ण गुण के योग से अग्नि उष्ण है ऐसा कहा जा सकता हैं, स्वयं अग्नि उष्ण नहीं हो सकती। अयुतसिद्ध लक्षण समवाय यहाँ इसमें है, इस प्रकार की बुद्धि प्रवृत्ति का कारण होती है, इसलिए गुण-गुणी में अभेद का व्ययदेश होता है और इस समवाय सम्बन्ध के कारण ही उष्णत्व के समवाय से गुण में उष्णता तथा उष्ण गुण के समवाय से अग्नि उष्ण हो जाती है। .....
इसके उत्तर में आ० अकलंकदेव ने कहा है कि ऐसा नहीं है, स्वतन्त्र पदार्थों में समवाय के नियम का अभाव है। यदि उष्ण गुण एवं अग्नि परस्पर भिन्न हैं तो ऐसा कौन सा प्रतिविशिष्ट नियम है कि उष्ण गुण का समवाय अग्नि में ही होता है, शीतगुण में नहीं ? उष्णत्व का समवाय उष्ण गुण में ही होता है, शीत गुण में नहीं। इस प्रकार का प्रतिनियम दृष्टिगोचर नहीं होता।
इसके अतिरिक्त समवाय के खण्डन में अनेक युक्तियां दी गई हैं। १. वृत्यन्तर का अभाव होने से समवाय का अभाव है।'
२. समवाय प्राप्ति है इसलिए उसमें अन्य प्राप्तिमान का अभाव है ऐसा भी नहीं है, क्योंकि इस प्रकार के कथन में व्यभिचार आता है।
दीपक के समान समवाय स्व और पर-इन दोनों का सम्बन्ध करा देगा, ऐसा कहना भी उचित नहीं है, ऐसा मानने पर समवाय में परिणामित्व होने से अनन्यत्व की सिद्धि होगी।
इन सब कारणों से गुणादि को द्रव्य की पर्याय-विशेष मानना युक्तिसंगत है।
१. तत्त्वार्थवार्तिक १/१८ २. वही १/१/१२ ३. वही १/१/१३ ४. वही १/१/१४ ५. वही १/१/१५ ६. वही १/१/१६