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आ0 अकलंकदेवकृत तत्त्वार्थवार्तिक के कतिपय वैशिष्ट्य .
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प्रौढ़ शैली में लिखी गयी मौलिक कृति है। इसे राजवार्तिक के नाम से भी जाना जाता है। वार्तिककार अकलंकदेव ने सर्वार्थसिद्धि का अनुसरण करने के साथ-साथ उनकी अधिकांश पंक्तियों को वार्तिक बना लिया है। वार्तिक के साथ उनकी व्याख्या की है। चूंकि तत्त्वार्थसूत्र में दस अध्याय हैं, अतः तत्त्वार्थवार्तिक में भी दस ही अध्याय है किन्तु उद्योतकर के न्यायवार्तिक की तरह प्रत्येक अध्याय को आहिकों में विभक्त कर दिया गया है। इससे पहले जैन साहित्य में अध्याय के आह्रिकों में विभाजन करने की पद्धति नहीं पाई जाती है। अकलंकदेव द्वारा तत्त्वार्थवार्तिक में दिये गये वार्तिक प्रायः सरल
और संक्षिप्त हैं; किन्तु उनका व्याख्यान जटिल है। इस ग्रन्थ में अकलंकदेव के दार्शनिक, सैद्धान्तिक और वैयाकरण-ये तीन रूप उपलब्ध होते हैं।'
दार्शनिक वैशिष्ट्य- तत्त्वार्थवार्तिक के अध्ययन से यह बात स्पष्ट पता चलती है कि इसके रचनाकार भट्ट अकलंकदेव विभिन्न भारतीय दर्शनों के तलस्पर्शी अध्येता थे। उन्होंने विभिन्न दर्शनों के मन्तव्यों की समीक्षा कर अनेकान्तिक पद्धति से समाधान करने की परम्परा को विकसित किया है। उनका वाङ्मय गहन है। विद्वान् भी उसका विवेचन करने में कठिनाई का अनुभव करते हैं। उनके विषय में वादिराजसूरि ने कहा
"भूयोभेदं नयावगाहगहनं देवस्य यद्वाङ्मयम् । : कस्यद्विस्तरतो विविच्य वदितुं प्रभुमादृशः ।।" अर्थात् अकलंकदेव की वाणी अनेक भंग और नयों से व्याप्त होने के कारण अतिगहन है। मेरे समान अल्पज्ञ ,प्राणी उसका विस्तार से कथन और वह भी विवेचनात्मक कैसे कर सकता है।"
___तत्त्वार्थवार्तिक में न्याय-वैशेषिक, बौद्ध, सांख्य, मीमांसा तथा चार्वाक मतों की समीक्षा प्राप्त होती है। इसमें न्याय-वैशेषिक और बौद्धदर्शन की समीक्षा अनेक स्थलों पर की गयी हैं। अकलंकदेव का उद्देश्य इन दर्शनों की समीक्षा के साथ-साथ इनके प्रहारों से जैन तत्त्वज्ञान की रक्षा करना भी रहा है। इसमें वे पर्याप्त सफल भी हुए हैं। उन्होंने जैनन्याय की ऐसी शैली को जन्म दिया है जिसके प्रति बहुमान रखने के कारण परवर्ती जैन ग्रन्थकार इसे अकलक-न्याय के नाम से अभिहित करते हैं। उनकी शैली परवर्ती जैन न्याय ग्रन्थकारों ने चाहे वे दिगम्बर परम्परा के रहे हों या श्वेताम्वर . परम्परा के, बहुत अपनाया है। इस रूप में आचार्य समन्तभद्र और सिद्धसेन के बाद
जैन न्याय के क्षेत्र में उनका नाम बड़े गौरव के साथ लिया जाता है। यहाँ उनके द्वारा १. न्यायकुमुदचन्द्र, प्र० भाग, पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री द्वारा लिखित प्रस्तावना, पृ०४३